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श्लोक- वार्तिक
वाले चाण्डाल, यवन, कतिपय यूरोप वासो मनुष्य, सिंह, व्याघ्र, आदि जीवों के सिद्ध हैं ( व्याप्तिपूर्वक
दृष्टान्त ) |
तत्प्रर्कषात्पुनः सिद्धयेदुधीनधामप्रकृष्टता । प्रकर्षपर्यन्तात्तत्प्रकर्षव्यवस्थितिः ॥ ३ ॥
तस्य
पापानुष्ठा क्वचिद्याति पर्यन्ततारताम्यतः । परिमाणादिवत्ततो रौद्रध्यानमपश्चिमं ॥४॥ तस्यापकर्षतो हीनगतेरप्यपकृष्टता ।
सिद्धति बहुधाभिन्नं नारकायुरुपेयते ॥५॥
उस आरम्भ परिग्रह की प्रकर्षता से फिर तिर्यंच गति से हीन होरहे नरक स्थान की प्रकर्षता सिद्ध हो ही जावेगी क्योंकि उस आरम्भ परिग्रह की प्रकर्षपर्यन्तपन की प्राप्ति से उस हीन स्थान के प्रकर्ष की व्यवस्था हो रही है।
आरंभ, परिग्रह आदि पापों का अनुष्ठान । पक्ष ) कहीं न कहीं अंतिम पर्यंत अवस्था को प्राप्त हो जाता है साध्य ) तर तम भावरूप से प्रकर्ष हो जाने से ( हेतु ) परिमाण, दोषहीनता, ज्ञानवृद्धि आदि के समान अन्वय दृष्टांत), तिस कारण एक प्रधान रौद्र ध्यान नरक आयु का आस्रव सिद्ध हो जाता है । उस रौद्र ध्यान के अपकर्ष से हीन गति का भी अपकर्ष सिद्ध हो जाता है जिससे कि पहिले, दूसरे आदि नरकों की एक, तीन, आदि सागर स्थिति वाले नरक आयुः कर्म का आस्रव होता है यों कारणों के अनेक प्रकार होजाने से बहुत प्रकारों से भिन्न होरही नरक आयु का ग्रहण कर लिया जाता है। परमाणु से लेकर आकाश पर्यन्त परिमाण का प्रकर्ष बढ़ रहा है । गुणस्थानों में दोष कमती - कमती होरहे हैं । ज्ञान उत्तरोत्तर बढ़ रहा है ।
नरक आयु का आस्रव कह दिया गया अब क्रमप्राप्त तिर्यक आयु के आस्रावक कारणों का प्रदर्शन कराने के लिये अग्रिम सूत्र कहा जाता है ।
माया तैर्यग्योनस्य ॥१६॥
मायाचार, कुटिलता, या कपट करना ये तिर्यंच योनि के जीवों में संभवने वाली तिर्यंच आयु का आस्रव है ।
चारित्रमोहोदयात् कुटिलभावो माया । सा कीदृशी ? तैर्यग्योनस्यायुष आस्रव इत्याह
चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से आत्मा के उपजा कुटिल परिणाम माया कहा जाता है। यहाँ किसी का प्रश्न है कि किस प्रकार की वह माया भला तिर्यंचयोनि जीवों के उपयोगी तिर्यक आयु का आस्रव है ? ऐसी आशंका प्रवर्तने पर ग्रन्थकार उत्तर वार्तिकों को कहते हैं ।