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छठा-अध्याय
५१३ तरि च श्रद्धानघातहेतून् ५द्गलानास्रावयति, यथा श्रोत्रियस्य मद्ये तद्भाण्डे तत्प्रतिज्ञाने तत्प्रणेतरि श्रद्धानघातहेतूनासिकादिपिधायककरादीन्, तथा च कस्यचिज्जीवादितत्त्वप्रणेतरि केवलिनि तदाश्रये च श्रुते तत्प्रतिज्ञापिनि च संघे तत्प्रतिपादिते च धर्मे देवेषु चावर्णवादस्तस्मात्तथेति प्रत्येतव्यम् ।
___ जो जिसमें और जिसके आश्रय में तथा जिसके अनुसार प्रतिज्ञा करने वालों में एवं जिस प्रणेता के समझाये गये पदार्थ में अवर्णवाद है वह अवर्णवाद उस प्रणेता में और उसके आश्रय में अथवा उसका आश्रय धारने वाले में तथा उसके अनुसार प्रतिज्ञा करने वाले में एवं उसके प्रणयन प्राप्त में श्रद्धान होने के घातक हेतु होरहे पुद्गलों का आस्रव कराता है। जैसे कि श्रोत्रिय ब्राह्मण के हुये मद्य
राब ) में, उसके बर्तन में, उसको अंगीकार करने वाले में और उसके प्रणेता में श्रद्धान घात के हेतु होरहे नासिका आदि को ढंकने वाले हाथ, आँख आदि का आस्रव कराते हैं ( व्याप्तिपूर्वकदृष्टान्त ) यों तिसी प्रकार किसी-किसी जीव आदि तत्त्वों के प्रणेता केवली भगवान में और उनके आश्रय होरहे श्रुत में तथा उनके अंगीकृत संघ में एवं च उन केवली के द्वारा समझाये गये धर्म और देवों में अवर्णवाद है ( उपनय ) । तिस कारण से उक्त प्रतिज्ञावाक्य ठीक तिसी प्रकार है अर्थात् केवली आदि में किया गया अवर्णवाद अवश्य ही उस दोषी जीव के दर्शन मोह का आस्रव करा देता है । यो प्रतीति कर लेनी चाहिये ।
दर्शन मोहनीय और चारित्रमोहनीय ये मोहनीय कर्म के दो भेद हैं । तिनमें दर्शन मोहनीय कर्म के आस्रव का कारण कहा जा चुका है। अब चारित्र मोहनीय कर्म के आस्रवहेतु का प्रतिपादन करने के लिये श्री उमास्वामि महाराज अग्रिम सूत्र को कहते हैं।
कषायोदयात्तीवपरिणामश्चारित्रमोहस्य ॥१४॥
कषाय के उदय से आत्मा की तीव्र परिणति हो जाना तो चारित्र मोहनीय कर्म का आस्रव हेतु है।
द्रव्यादिनिमित्तवशात्कर्मपरिपाक उदयः, तीव्रकषायशब्दावुक्तार्थों, चरित्रं मोहयति मोहनमात्रं वा मोहः। कषायस्योदयात्तीव्रः परिणामश्चारित्रमोहस्य कमेण आस्रव इति सूत्रार्थः। कथमित्याह
द्रव्य, क्षेत्र आदि निमित्तों के वश से कर्म का परिपाक होना उदय कहा जाता है। तीव्र शब्द और कषाय शब्द के अर्थ को हम पहिले कह चुके हैं। कषायाकषाययोः साम्परायिकेर्यापथयोः” इस सूत्र के विवरण में कषाय शब्द का और “तीव्रमंदज्ञाताज्ञातभावाधिकरणवीर्यविशेषेभ्यस्तद्विशेषः" इस सूत्र के भाष्य में तीव्र शब्द का अर्थ कहा जा चुका है। "मुह वैचित्ये" इस धातु से मोह शब्द बनाया गया है । चारित्र गुण को मोहित कर रहा अथवा चारित्र का मोह कर देना मात्र चारित्र मोह है। कषाय आत्मक पूर्व संचित कर्मों के उदय से क्रोधादि रूप तीव्र परिणति हो जाना चारित्र मोहनोय कर्म का आस्रव है यों इस सूत्र का अर्थ समझा जाय । कोई यहाँ पूँछता है कि उक्त सिद्धान्त केवल