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________________ ५१२ श्लोक-वार्तिक जीवित रहते हैं, द्रव्य स्त्री के भी केवलज्ञान हो जाता है, केवली भगवान् तूंबी रखते हैं, केवली के दर्शन, ज्ञान और चरित्र का भिन्न-भिन्न समय है, इत्यादि कथन करना केवलियों में अवर्णवाद है। शास्त्र में लिखा दिखाकर मांस के भक्षण को निर्दोष कहना, देवी पर चढ़ा हुआ मद्य पवित्र हो जाता है. तीव्र कामपीड़ित जीवों का मैथुन कर लेना दोषाधायक नहीं है, रात्रि में भोजन करना वैध है, आपत्तिकाल में चोरी की जा सकती है, वध किया जा सकता है, इत्यादिक पापमय चेष्टाओं को निर्दोष पुष्ट करना श्रुत में अवर्णवाद है । शूद्रपन, अपवित्रपन आदि कथन करना संघ में असद्भत दोष प्रकट करना है। गुणरहितपना, पराधीन कारकत्व, निर्बलता सम्पादकत्व, आदि कहते हुए धर्म के सेवन करने वालों को असुर हो जाना कहना यह धर्म का अवर्णवाद है । देवता मांस खाते हैं, चन्द्र देव अहिल्या पर आसक्त हुये थे, देवी मनुष्यों या स्त्री देवों का परस्पर मेथुन वर्णन करना, असुरों के सींग, लम्बे दान्त, आदि विकृत संस्थान बखानना इत्यादिक निरूपण देवों में अवर्णवाद हुआ समझना चाहिये । यो उक्त माननीय वस्तुओं में अवर्णवाद करना दर्शन मोहनीय कर्म का आस्रव है । सम्यग्दर्शन को मोहित करा रहा अथवा केवल मोह कर देना यह दर्शन मोहनीय कर्म है। उस कर्म के आगमन का हेतु केवली आदिक का अवर्णवाद है। यह इस सूत्र अनुसार आस्रव का अर्थ है। यहाँ कोई पूंछता है कि उक्त सूत्र का अर्थ किस प्रकार युक्तियों से सिद्ध हुआ ? बताओ। ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर ग्रन्थकार उत्तर वात्तिकों को कहते हैं। केवल्यादिषु यो वर्णवादः स्यादाश्रये (स्रवो) नृणां । । स स्यादर्शनमोहस्य तत्वाश्रद्धानकारिणः ॥१॥ आस्त्रवो यो हि यत्र स्यायदाधारे यदास्थितौ। यत्प्रणेतरि चावर्णवादः श्रद्धानघात्यसौ ॥२॥ श्रोत्रियस्य यथा मद्य तदाधारादिकेषु च। प्रतीतोऽसौ तथा तत्त्वे ततो दर्शनमोहकृत् ॥३॥ केवल ज्ञानी, शास्त्र आदि में अवलंब लेकर जो अवर्णवाद है ( पक्ष ) वह जीवों के तत्त्वों में अश्रद्धान कराने वाले दर्शन मोहनीय कर्म का आस्रवहेतु है ( साध्य ) जिस कारण कि जो-जो जिसमें और जिस का आधार या आश्रय लेकर उपजे हुये पदार्थ में तथा जिस शास्त्र अनुसार श्रद्धा कर प्रतिज्ञा करने वाले जीवों में एवं जिसके बनाये हुये पदार्थ में अवर्णवाद लगाया जाता है वह उस विषय के श्रद्धान का घात कर देता है। ( अन्वयव्याप्ति ) जिस प्रकार कर्मकाण्डी श्रोत्रिय ब्राह्मण के मद्य में और उसके आधार भाजन में, उस मद्य के बनाने वाले आदि में वह श्रद्धान का घातक प्रतीत हो रहा है । ( अन्वयदृष्टान्त )। तिसी प्रकार जीव आदि तत्त्व या तत्त्वों के प्रणेता आदि में अवर्णवाद किया गया ( उपनय ) तिस कारण दर्शन मोहनीय कर्म का आस्रव करने वाले केवली आदिका अवर्णवाद है। ( निगमन )। यो पाँच अवयव वाले अनुमान प्रमाण करके उक्त सूत्र का अर्थ युक्ति सहित पुष्ट कर दिया गया है। यो यत्र यदाश्रये यत्प्रतिज्ञाने यत्प्रणेतरि चावर्णवादः स तत्र तदाश्रये तत्प्रतिझाने क्ला
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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