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________________ छठा अध्याय ५११ हम जैनों के यहाँ पाप स्वरूप असवेदनीय कर्म की विशेष प्रकृतियाँ और पुण्प रूप सद्वेद्य कर्म की विशेष प्रकृतियाँ सिद्ध हैं क्योंकि विशेष विशेष कार्यों की उत्पत्ति तो विशेष कारणों के बिना नहीं हो सकती है । जिस जिस जाति के अनेक दुःख सुख जाने जा रहे हैं उतनी असंख्य जातियों के असदुद्वेद्य और वेद्य कर्म हैं। दोनों प्रकार के वेदनीय कर्म के आस्रावक कारणों को कहकर अब अनन्त संसार के कारण हो रहे दर्शन मोहनीय कर्म के आस्रव हेतु का प्रदर्शन कराने के लिये सूत्रकार इस अगले सूत्र को कहते हैं। केवलिश्रुतसंघधर्मदेववर्णवादी दर्शनमोहस्य ॥१३॥ केवली भगवान्, शास्त्र, चतुर्विधसंघ, जिनोक्तधर्म, चतुर्णिकायदेव, इनमें अवर्णवाद यानी असद्भूत दोषों को लगाना तो दर्शन मोहनीय कर्म का आस्रव है । करणक्रमव्यवधानातिवर्तिज्ञानोपेताः केवलिनः प्रतिपादिताः तदुपदिष्टं बुद्ध्यतिशयगणधरावधारितं श्रुतं व्याख्यातं रत्नत्रयोपेतः श्रमणगणः संघः । एकस्यासंघत्वमिति चेन्न, अनेकव्रत गुणसंहननादेकस्यापि संघत्वसिद्धेः । "संघो गुण संघादो कम्माणविमोक्खदो हवदि संघो । दंसणणाणचरिते संघादिंतो हवदि संघो ||" इति वचनात् । अहिंसालक्षणो धर्मः । देवशब्दो व्याख्यातार्थः । उपयोग लगाने अनुसार चक्षु आदि इन्द्रियों की प्रवृत्ति के क्रम से होने वाले और व्यवधान का उल्लंघन करने वाले केवलज्ञान से सहित हो रहे केवली भगवान् की पूर्वग्रन्थ में प्रतिपत्ति करा दी गयी है । उन केवली भगवान् करके उपदेश किये जा चुके और बुद्धि का अतिशय धारने वाले गणधर महाराज करके निर्णीत कर गूंथे गये श्रुत का भी व्याख्यान हो चुका है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकूचारित्र इन तीनों रत्नों से सहित हो रहा साधुओं का समुदाय तो संघ है । यदि यहां कोई यों कटाक्ष करे कि जब समुदाय को संघ कहा गया है तो एक मुनि को संघपना प्राप्त नहीं हुआ । आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि एक मुनि की आत्मा में भी अनेक गुण या व्रतों का समुदाय है अतः अनेक व्रत या गुणों का संघात होने से एक व्यक्ति का भी संघपना सिद्ध है । शास्त्रों में ऐसा वचन मिलता है कि गुणों का संघात संघ है, कर्मों का विमोक्ष हो जाने से संघ होता है, दर्शन, ज्ञान, चारित्र, इनके समुदाय से भी संघ होता है। धर्म का लक्षण अहिंसा सुप्रसिद्ध ही है “देवाश्चतुर्णिकायाः” इस सूत्र में देव शब्द के अर्थ का व्याख्यान किया जा चुका है। अन्तःकलुषदोषादसद्भूतमलोद्भावनमवर्णवादः । पिंडाभ्यवहारजीवनादिवचनं केवलिषु, मांसभक्षणानवद्याभिधानं श्रुतं शूद्रत्वाशुचित्वाद्याविर्भावभावनं संघे, निर्गुणत्वाद्यभिधानं धर्मे, सुरामांसोपसेवाद्याघोषणं देवेष्ववर्णवादो बोद्धव्यः । दर्शनमोहकर्मण आस्रवः । दर्शनं मोहयति मोहनमात्रं वा दर्शनमोहः कर्म तस्यागमनहेतुरित्यर्थः ॥ कथमित्याह अन्तरंग की कलुषता के दोष से असद्भूत मल या दोषों को प्रकट करना ( झूठी बुराई करना ) अवर्णवाद है । मुनियों के समान केवलज्ञानी भगवान् भी कौर पिंड बनाकर डटकर आहार कर ही
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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