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श्लोक-वार्तिक आदि करने वाले जीव ये स्यात् नित्य अनित्य आत्मक होते हुये परिणामी हैं अदाता अवस्थाको छोड़कर दाता परिणाम को ले रहा अन्वित आत्मा ही दाता हो सकता है। यही प्रक्रम पात्र और संयमी आदि में लगा लेना । कूटस्थ नित्य अथवा क्षणिकैकान्त पक्ष में अनुकम्पा आदिक नहीं सम्भवते हैं । आत्मा को सर्वथा नित्य माना जाय तो विक्रिया नहीं होने के कारण परिणति नहीं हो सकती है, कोई दाता भी नहीं बन सकता है । इसी प्रकार आत्मा को क्षणिक मानने पर अन्वितपना नहीं होने के कारण अनुकम्पा, दान, स्वर्ग प्रापण, आदि नहीं घटित होते हैं किन्तु द्रव्यरूप से नित्यत्व को ग्रहण कर रहे और पर्यायरूप से अनित्यता को प्राप्त हो रहे जीव के अनुकम्पा आदि परिणतियां घटित हो जाती हैं यों ये प्रसिद्ध हो रहे भूतव्रत्यनुकम्पा आदिक सभी सद्वेद्य कर्म के आस्रव हैं । यहाँ कोई पूछता है कि इस सूत्रोक्त सिद्धान्त का किस प्रमाण से निश्चय कर लिया जाता है ? बताओ । यों ही कथन मात्र से तो चाहे जिस किसी भी प्रमेय की सिद्धि नहीं हो सकती है इस प्रकार तार्किकों की जिज्ञासा प्रवर्तने पर ग्रन्थकार अग्रिम वार्तिकों द्वारा समीचीन युक्ति को स्पष्ट कह रहे हैं।
भूतव्रत्यनुकम्पादि सातकारणपुद्गलान् । जीवस्य ढौकयत्येवं विशुद्धय गत्वतो यथा ॥१॥ पथ्यौषधावबोधादिः प्रसिद्धः कस्यचिद्वयोः ।
सदसद्वद्यकर्माणि तादृशान् पुद्गलानयं ॥२॥ भूत या व्रतियों में जीव के द्वारा किये गये अनुकम्पा, दान, आदिक (पक्ष) सात सुख के कारण हो रहे पुद्गलों का जीव के निकट गमन करा देते हैं (साध्यदल) इस प्रकार पुण्यास्रव का कारण हो रही विशुद्धि का अङ्ग हो जाने से (हेतु) जिस प्रकार कि प्रसिद्ध हो रहे पथ्य भोजन, औषधि, परिज्ञान, आदिक पदार्थ किसी-किसी जीव के कल्याण कारक पुद्गलों का आस्रव करा देते हैं। यह सिद्धान्त लौकिक परीक्षक, या वादी प्रतिवादी दोनों के यहाँ प्रसिद्ध है। यह जीव भी तिस प्रकार के सुख, दःख फलवाले सातवेदनीय और असातावेदनीय कर्म स्वरूप पुद्गलों का आस्रव करता रहता है।
यथा दुःखादीनि स्वपरोभयस्थानि संक्लेशविशेषत्वाद् दुःखफलानासावयन्ति जीवस्य तथा भूतव्रत्यनुकम्पादयः सुखफलान् विशुद्धयं गत्वादुभयवादिप्रसिद्धपथ्यौषधावबोधादिवत् । ये ते तादृशा दुःख-सुखफलास्ते असद्वेद्यकर्मप्रकृतिविशेषाः सवैद्यकर्मप्रकृतिविशेषाश्चास्माकं सिद्धाः कार्यविशेषस्य कारणविशेषाविनाभावित्वात् ॥
स्व, पर, और उभय, में स्थित हो रहे दुःख आदिक जिस प्रकार संक्लेश विशेष होने से जीव के दःख फल देने वाले पुद्गलों का आस्रव कराते हैं ठीक उसी प्रकार भूतव्रतियों के ऊपर की गयीं दया, दान, आदिक शुभ क्रियायें विशुद्धि का अंग होने के कारण सुख फल वाले पुद्गलों का जीव के निकट आस्रव करा देते हैं जैसे कि दोनों वादी, प्रतिवादियों के यहाँ प्रसिद्ध होरहे पथ्य आहार, औषधिसेवन, यथार्थज्ञान, प्रसन्नता, निश्चिन्तता, परमित हास्य,स्वच्छ वायु में टहलना आदिक शुभ क्रियायें सुख उत्पादक पुद्गलों का आगमन कराती हैं जो वे तिस प्रकार के दःख सुख फल वाले पुद्गल हैं वे ही