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________________ छठा अध्याय ५०५: वृत्तिप्रयोगप्रसंगो लघुत्वादिति चेन्न, अन्योपसंग्रहार्थत्वात् तदकरणस्य । इति करणानर्थक्यमिति चेन्न, उभयग्रहणस्य व्यक्त्यर्थत्वात् । यहाँ कोई शंका उठाता है कि संयमादि योग और क्षांति तथा शौच यों द्वन्द्व वृत्ति करते हुये “भूतव्रत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोगक्षांतिशौचानि" ऐसे प्रयोग का प्रसंग होना चाहिये । इसमें लाघव गुण है। कार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि उस समासवृत्ति का नहीं करना तो अन्य प्रकारों का संग्रह करने के लिये है । जैसे कि किसीने अपने भृत्य को आज्ञा दी कि जल ले आना, फल ले आना, भोजन लाना यों पृथक-पृथक कहने से सुपारी, इलायची आदि लाने का संग्रह हो जाता है। यदि जल, फल, भोजन, ले आवो यों मिलाकर कह दिया जाता तो इलायची, ताम्बूल आदि का संग्रह नहीं हो पाता। ऐसी दशा में पुनः शंका उठती है कि तब तो इति पद का प्रयोग करना व्यर्थ पड़ा क्योंकि समास नहीं करने से ही अन्य प्रकारों का संग्रह हो गया जो कि प्रयोजन इति पद द्वारा साधा गया था, आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि अभिप्रेत अर्थ को और भी अभिव्यक्त करने के लिये दोनों का ग्रहण किया गया है “द्विर्बद्धं सुबद्धं भवति” । स्वतंत्र आचार्य महाराज किसी विषय की अधिक पुष्टि करते हुये उसको दो बार कहते हैं । आचार्य महाराज के चरण कमलों में भक्ति रखने वाले मुझ भाषाटीकाकार ने भी कितने ही स्थलों पर दो दो, तीन तीन बार उसी प्रमेय को कहा है। भले ही विद्वानों को उसमें वैयर्थ्य जचते हुये अरुचि होय फिर भी स्थूल बुद्धि वाले श्रोताओं के हितलाभ का विचार रखते हुये उसी प्रमेय को दो बार, तीन बार लिखना पड़ा है । के पुनस्ते गृह्यमाणा इत्युपदर्शयामः । “अर्हत्पूजापरता वैयावृत्योद्यमो विनीतत्वं । आर्जवमार्दवधार्मिकजनसेवामित्रभावाद्या: " । भूतग्रहणादेव सर्वप्राणिसंप्रतिपत्तेर्वृत्तिग्रहणमनर्थकमिति चेन, प्रधानख्यापनार्थत्वाद्वतिग्रहणस्य नित्यानित्यात्मकत्वेऽनुकम्पादिसिद्धिर्नान्यथा । सोऽयमशेषभूतवत्यनुकंपादिः सद्वेद्यस्यास्रवः । कुतो निश्चीयत इति युक्तिमाह असमास और इति पद करके ग्रहण किये गये वे अन्य प्रकार फिर कौन से हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में हम यों उन प्रकारों को पद्य द्वारा दिखलाते हैं-" श्री अरहंत देव भगवान् की पूजा करने में तत्पर रहना, बाल, वृद्ध, तपस्वियों की वैयावृत्य करने में उद्यत रहना, विनय सम्पत्ति रखना, मायाचार का त्याग करते हुये परिणामों में सरलता रखना, अभिमान नहीं करना, धार्मिक जनों की सेवा करना, सब जीवों से मित्रभाव रखना, परोपकार करना, आदि का परिग्रहण हो जाता है। यहाँ कोई शंका पुनः उठाता भूत अर्थ जगत् के यावत् प्राणी हैं अतः भूत शब्द का ग्रहण करने से ही सम्पूर्ण प्राणियों की अच्छी प्रतिपत्ति हो जाती है। फिर सूत्र में व्रती शब्द का ग्रहण करना व्यर्थ पड़ता है । सामान्य तो सभी विशेषों में व्यापता है । आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना कारण कि भूतों में व्रतियों की प्रधानता को प्रसिद्ध कराने के लिये सूत्र में पृथक रूप से व्रती का कथन किया है । भूतों में जो अनुकम्पा है उसमें व्रतियों के ऊपर अनुकम्पा करना प्रधान है। सामान्य रूप से सिद्ध होते हुये भी प्रधानता प्रकट करने के लिये विशेष का पुनः प्रयोग कर दिया जाता है। जैन सिद्धान्त अनुसार पदार्थों के कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य आत्मक होने पर अनुकम्पा, दान, आदि अनुष्ठानों की सिद्धि हो सकती है अन्यथा नहीं । अर्थात्- - दया करने वाला या दयापात्र एवं दाता या दानपात्र ये दोनों युगल अथवा सरागसंयम
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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