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________________ - छठा-अध्याय :५०७ रति है वहां ही सुख है उसी प्रकार उपवास, केशलोंच आदि क्रियाओं को कर रहे मुनि के मानसिक आनन्द का सन्निधान है अतः दःखादि नहीं हैं । तभी तो कभी-कभी उक्त शुभ क्रियाओं में यदि क्रोध आदि प्रमाद हो जाये तो प्रायश्चित्त का विधान करना पड़ता है अतः तपश्चरण आदि करने में साधुओं के विशुद्ध मानसिक अनुराग है । मानसिक रति के बिना कोई भी स्वतंत्र जीव बुद्धि पूर्वक क्रियाओं को कर रहा सन्ता कहीं भी कायक्लेश का आरम्भ नहीं करता है क्योंकि विरोध है। जहां मानसिक प्रेम नहीं है वहां स्वतंत्र पुरुष को बुद्धि पूर्वक कोई क्रिया ही नहीं है और जहां बुद्धि पूर्वक क्रिया है वहां मानसिक अनुराग अवश्य है अतः मनोरत्यभाव का तपःक्लेश आदि क्रियाओं के साथ विरोध है । तिस कारण प्रकरण प्राप्त आत्म संक्लेश विशेषत्व हेतु का तपश्चरण कायक्लेश आदिकों करके व्यभिचार नहीं आता है । सभी लौकिक या दार्शनिक विद्वानों के यहां उक्त सिद्धान्त की समीचीन प्रतिपत्ति होरही है। दूसरों के यहां भी दुःख, शोक, आदि क्रियाओं से असद्वद्य आदि कुफल वाले पुद्गलों के आस्रव होने का निराकरण नहीं किया गया है अतः इस अन्वयदृष्टान्त द्वारा भी दःख, शोक, आदिकों के द्वारा असद द्य के आस्रव होने को साधना निर्दोष है। ___ असातवेदनीय कर्म का आस्रव कराने वाले हेतुओं को कहा अब सद्वद्य के आस्रावक कौन हैं ? ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर सूत्रकार महाराज अग्रिम सूत्र को कहते हैं। भूतव्रत्यनुकंपादानसरागसंयमादियोगः क्षांतिः शौचमिति सद्वेद्यस्य ॥१२॥ भूत यानी प्राणीमात्र और विशेष रूप से व्रती जीवों में अनुकम्पा करना तथा अनुकम्पा पूर्वक दान करना एवं राग सहित संयम पालना आदि यानी संयमासंयम धारण करना, अकाम निर्जरा करना, बाल तप करना इन तीन का आदि पद से ग्रहण करना और योग धारना, क्षमा पालना, निर्लोभ होकर शौच धर्म सेवना, इस प्रकार की शुभ क्रियायें तो सातवेदनीय कर्म का आस्रव कराती हैं। आयुर्नामकर्मोदयवशाद्भवनाद्भूतानि सर्वप्राणिन इत्यर्थः । व्रताभिसंबंधिनो वतिनः सागारानगारमेदाद्वक्ष्यमाणाः । अनुकंपनमनुकंपा । भूतानि च वतिनश्च भूतव्रतिनः तेषामनुकम्पा भूतव्रत्यनुकंपा । 'साधनं कृता बहुल'मिति वृत्तिः गले चोपकवत् मयूरव्यंसकादित्वाद्वा । आयुःकर्म और नाम कर्म के उदय की अधीनता से जो उन-उन गतियों में उपजते रहते हैं वे भूत हैं इसका अर्थ सम्पूर्ण संसारी प्राणी हैं । अणुव्रतों का और महाव्रतों का सब ओर से सम्बन्ध रखने वाले प्राणी व्रती हैं जो कि सागार-अनगार के भेद से "अगायनगारश्च" इस सूत्र द्वारा दो प्रकार के कहे जाने वाले हैं। परायी पीड़ा को मानू अपने में ही कर रहे दयालु पुरुष की अनुकम्पा को यहाँ अनुकम्पा समझा जाय । भूतों और व्रतियों यों इतरेतर द्वन्द्व समास कर “भूतव्रतिनः" पद बना लेना चाहिये, उन भूतव्रतियों के ऊपर जो अनुकम्पा भाव है वह भूतव्रत्यनुकम्पा है यहाँ “साधनं कृता बहुलं” इस सूत्र द्वारा तत्पुरुष समास किया गया है। जिस प्रकार कि गले में चोपक (रोग विशेष) ऐसा विग्रह कर तत्पुरुष समास कर लिया जाता है। राजवार्त्तिक या सर्वार्थसिद्धि में यहाँ सप्तमी तत्पुरुष किया गया है।
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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