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________________ छठा-अध्याय ५०५ हुआ है । तिस ही प्रकार दूसरों में किया गया दुःख (पक्ष) प्रतिकूलवेदना स्वरूप फल को धारने वाले पुद्गलों का आस्रव कराता है (साध्य) तिस ही कारण से यानी पर को दुःख उपजाने की जाति वाले विशेष आत्मसंक्लेश के होने से (हेतु) उसी के समान अर्थात्-दूसरों को आग में प्रवेश कराने वाले लोक प्रसिद्ध हो रहे दुःख के समान (अन्वय दृष्टान्त) यह दूसरा अनुमान हुआ । तथा उभय यानी स्व और पर दोनों में तिष्ठ रहा दुःख (पक्ष) विवाद में प्राप्त होरहे असात फल वाले पुद्गलों का आस्रावक है (साध्य) तत एव अर्थात्-स्व पर दुःख को उपजाने की जाति वाले विशेष आत्मीय संक्लेश होने से (हेतु) उसी के समान भावार्थ-स्व, पर, दोनों के अग्नि में प्रवेश कराने वाले प्रसिद्ध दुःख के समान (अन्वयदृष्टान्त)। यह तीसरा अनुमान हुआ। यों उक्त तीन अनुमानों से स्वस्थ, परस्थ, और उभयस्थ दुःखों में प्रकृत साध्य को साध दिया है । इसी प्रकार स्वस्थ, परस्थ, और उभयस्थ होरहे शोक, ताप, आक्रन्दन, वध, परिदेवन (पक्ष) शोक आदि को उपजाने वाले जीव के असातफल वाले पुद्गलों का आस्रव कराते हैं (साध्य) दुःख की शोक आदि जातिवाले विशेष आत्म संक्लेश होने से (हेतु) विष खा लेना, शस्त्र मार लेना, आग लगा देना आदि क्रियाओं को कराने वाले शोक, ताप, आक्रन्दन, वध, परिदेवन के समान (अन्वयदृष्टान्त) इस प्रकार अठारह अनुमान समझ लेने चाहिये । अर्थात्-तीन अनुमान तो पूर्व में प्रकट कर दिये गये हैं-१स्वस्थ शोक २ परस्थ शोक ३ उभयस्थशोक ४ स्वस्थ ताप ५ परस्थताप ६ उभयस्थ ताप ७ स्वस्थ आक्रन्दन ८ परस्थ आक्रन्दन ९ उभयस्थ आक्रन्दन १० स्वस्थवध ११ परस्थवध १२ उभयस्थ वध १३ स्वस्थ परिदेवन १४ परस्थ परिदेवन १५ उभयस्थपरिदेवन इन पन्द्रहों को पक्ष कर उक्त साध्य, हेतु, दृष्टान्त, देते हये पन्द्रह अनुमान बना कर आगम सिद्ध प्रमेय की प्रतिवादियों के सन्मुख अनुमान से सिद्धि कर दी गयी है । अब भले ही वे व्यभिचार, आदि दोष उठावें उनको अवसर दिया जाता है किन्तु निर्दोष अनुमानों में कोई क्या दोष लगायेगा ? नहीं। प्रत्युत प्रसन्न होगा। न तावदत्र दुःखजातीयात्मसंक्लेशविशेषत्वं साधनमसिद्धं । क्रोधादुपनीतदुःखादीनां विशुद्धिरिति विरोधिनां दुःखजातीयात्मसंक्लेशविशेषत्वप्रसिद्धः। नाप्यनैकांतिकं तीर्थकरायुत्पादितकायक्लेशादिदुःखेन स्वपरोभयस्थेनाप्यसातफलपुद्गलानास्रवणादिति न मंतव्यं, तस्या तज्जातीयत्वादात्मसंक्लेशविशेषत्वासिद्धेः। तत एव न तीर्थकरोपदेशविरोधात् दुःखादीनामसद्वेद्यास्रवत्वायुक्तिः, सर्वेषां स्वर्गापवर्गसाधनानां दुःखजातीनां पापास्रवत्वप्रसंगात् । तपश्चरणाद्यनुष्ठायिनो द्वेषाद्यभावाच्च । इस अनुमान में कहा गया दःख जाति वाला आत्म संक्लेश विशेष हो जाना हेतु असिद्धहेत्वाभास तो नहीं है क्योंकि क्रोध से चला कर प्राप्त कराये गये दुःख आदिकों को दुःखजातीय आत्म संक्लेश विशेषपना प्रसिद्ध है जो कि विशुद्धि इस आत्मीय स्वभाव के विरोधी हो रहे दुःख, शोक, आदि हैं। भावार्थ-कषाय प्रयुक्त हुये दुःख, आदिक सब आत्मा की विशुद्धि के विरोधी हैं अतः वे संक्लेश विशेष हैं यों पक्ष में हेतु ठहर गया। तथा उक्त हेतु व्यभिचारी भी नहीं है कारण कि विषक्ष में हेत के ठहर जाने का निश्चय नहीं है संदेह भी नहीं है। यदि यहाँ कोई यों मान बैठे कि भगवान स्वयं तपश्चरण करते हुये अपने में दुःख उपजाते हैं अन्य दीक्षा लेने वालों को नग्नता, केश उपादना, उपवास आदि के उपदेश देकर दुःख उपजाते हैं, आचार्य महाराज या पण्डित जी आदि स्वयं
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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