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तदसद्वैद्यमप्रशस्तत्वादनिष्टफलप्रादुर्भावकारणत्वाच्च विशेष्यते । असच्च तद्वेद्यं च तदिति ।
जगत् में अनेक प्रकार के दुःखों को देने वाले अप्रशंसनीय पदार्थ से अनिष्ट फलों को उपजाने वाले बहुत प्रकार के कारण हैं । तदनुसार अप्रशस्त होने से और अनिष्ट फलों की उत्पत्ति के कारण होने से वह असा वेदनीय कर्म विशेष - विशेष प्रकार का होजाता है जो असत् यानी अप्रशस्त होरहा सन्ता चेतना करने योग्य है इस कारण वह तो असद्वेद्य है । यों कर्मधारय समास वृत्ति कर लेनी चाहिये ।
छठा अध्याय
अत्र सूत्रे दुःखाभिधानामादौ प्रधानत्वात् । तस्य प्राधान्यं तद्विकल्पत्वादितरेषां शोकादीनां । शोकादिग्रहणस्यान्यविकल्पोपलक्षणार्थत्वादन्यसंग्रहः । के पुनस्तेऽन्ये ? अशुभप्रयोगपैशुन्यपरपरिवादाः कृपाविहीनत्वं अंगोपांगछेदनतर्जन संत्रासनानि । तथा भर्त्सनतक्षण विशसनबंधन - संरोधननिरोधाद्यैर्मर्दन भेदनवाहनसंघर्षणानि तथा विग्रहे रौक्ष्यविधानं परात्मनिंदाप्रशंसने चैव संक्लेशजननमायुर्बहुमानत्वं च सुखलोभात् वह्वारम्भपरिग्रहविश्रंभविघातनैकशीलत्वं पापक्रियो - पजीवन निःशेषानर्थदण्डकरणानि तद्दानं च परेषां पापचारैर्जनैश्च सह मैत्री तत्सेवासंभाषणसंव्यवहाराच्च संलक्ष्याः ।
इस सूत्र में सब के प्रथम दुःख पद का निर्देश करना तो प्रधान होने के कारण हुआ है क्योंकि उस दुःख से न्यारे कहे गये शोक आदिक तो उसी दुःख के भेद प्रभेद हैं। अतः दुःख ही आदि में प्रधान बोला जाता है। हाँ शोक आदि का ग्रहण करना तो दुःख के अन्य संग्रहीत विकल्पों का उपलक्षण ग्रहण करने के लिए है । इस कारण अनुपातों का भी संग्रह होजाता है । दुःख के वे अन्य भेद प्रभेद फिर कौन से हैं ? इस प्रश्न का उत्तर यों समझिये कि अशुभ क्रियाओं का प्रयोग करना, पैशुन्य (चुगली करना, दूसरों की निन्दा तिरस्कार करना, कृपा से रहितपना, अंग या उपांगों का छेदना, ताड़ना, अधिक त्रास देना तथा डरावना, कुत्सित प्रभाव डालना, छीलना, काटना, बांधना, खूब रोक देना, जाने आने में बिघ्न डालना, आदि करके मर्दन करना, भेदना, लादना, मार घसीटना, आदि हैं यथा शरीर में रूखापन लाना या लड़ाई करते हुये प्रकृति में रूखापन ले आना परायी निन्दा और अपनी प्रशंसा ही किये जाना एवं संक्लेश उपजावना, आयु को बहुत मानना तथैव सुख के लोभ से बहुत आरम्भपरिग्रह रखना विश्वास को विघात करने की एक देव रखना, पाप क्रियाओं से आजीविका चलाना, सम्पूर्ण अनर्थदण्डों को किये जाना तथा उन पापोपदेश आदि को दूसरों के लिये अर्पण करना, उन पापाचारियों की सेवा करना, पापियों के साथ सम्भाषण करना, और अधिक ब्यवहार से भले प्रकार पहिचानने योग्य क्रियाओं का सेवन करना इत्यादि बहुत सी कुत्सित क्रियाओं का शोक आदि पदों द्वारा उपलक्षण हो जाता है ।
ते एते दुःखादयः परिणामाः स्वपरोभयस्थाः असद्वेद्यस्य कर्मण आस्रवाः प्रत्येतव्याः । प्रपंचतोऽन्यत्र तदभिधानात् ।
वे सब ये दुःखशोक आदिक परिणाम यदि स्व में दूसरे में अथवा दोनों में स्थित हो जाते