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________________ छठी-अंध्यार्थ ५०१ किया गया है ? या कर्ता से अभिन्न किया गया है ? प्रथम पक्ष अनुसार सहकारी कारण करके यदि कर्ता से भिन्न अतिशय का किया जाना माना जायेगा तो उस कर्ता की पूर्ववर्तिनी अकर्त्तापन अवस्था से प्रच्युति नहीं होने के कारण कर्त्तापन का विरोध है । जैसे तटस्थ असंख्य पदार्थ उस कर्ता से भिन्न पड़े हुये हैं उसी प्रकार वह नया उपजा अतिशय भी निराला पड़ा रहेगा । पहिले का कूटस्थ अकर्तृपन हट नहीं सकता है । यदि गाँठ के अकर्तृपन की प्रच्युति मानोगे तो उस कूटस्थ आत्मा के नित्यपन का विघात हुआ जाता है। हाँ द्वितीय पक्ष अनुसार सहकारी कारणों करके उस आत्मा से अभिन्न अतिशय का किया जाना माना जायेगा तब तो उस कर्त्ता आत्मा का ही किया जाना होने से आत्मा का अनित्यपना ही हो जावेगा इन उक्त दोनों दोषों के निवारणार्थ उस आत्मा का कथंचित् नित्यपना इष्ट करोगे तब तो दूसरे स्याद्वादियों के मत का आश्रय पकड़ना कथमपि दुःख से भी निवारणीय नहीं हुआ “अंध सर्पविल प्रवेश" न्याय से स्याद्वाद की शरण लेना आवश्यक हो जाता है तभी तो कहा गया है “दुःखादीनां कादिसाधनभावः पर्यायिपर्याययोर्भेदाभेदोपपत्तेः” । . एतेन प्रधानपरिणामस्य महदादेः करणत्वं प्रत्युक्तं, स्याद्वादानाश्रयणे कस्यचित्परिणामानुपपत्तेः प्रसाधनात् । तत एव नाधिकरणत्वं कर्मता वा तस्येति विचिंतितं । इस उक्त कथन करके सांख्यों के यहाँ माने गये प्रधान के परिणाम हो रहे महत्, अहंकार, तन्मात्रायें, आदि का करणपना खण्डित कर दिया गया है कारण कि स्यावाद सिद्धान्त का आश्रय नहीं लेने पर किसी भी पदार्थ का परिणाम होना नहीं बनता है । इस को हम कई स्थलों पर भले प्रकार साधचुके हैं । पूर्व आकार का त्याग और उत्तर आकार का ग्रहण तथा ध्रुवत्व स्वरूप परिणामों की उत्पत्ति होना नित्यानित्यात्मक पदार्थ में बनता है। तिस ही कारण से अर्थात्-अनेकान्त का तिरस्कार कर एकान्त पक्ष पकड़ लेने से सांख्यों के यहाँ उन महत्तत्त्व आदि का अधिकरणपना अथवा कर्मपना नहीं सध सकता है इस बात का भी विशेष रूप से चिंतन कर दिया जा चुका है। एतेन स्वतो भिन्नानेकगुणस्यात्मनः कर्तृत्वं व्यवच्छिन्नं, नित्यस्यानाधेयाप्रहेयातिशयत्वात् । तत एव न मनसः करणत्वं दुखाद्युत्पत्तौ सर्वथाप्यनित्यत्वप्रसंगात् । दुःखाधिकरणत्वमप्यात्मनोऽनुपपन्नं पूर्व तदनधिकरणस्वभावस्यात्यागे तद्विरोधात्, त्यागे नित्यत्वक्षतेः सर्वथापः । ततोऽनेकात्मन्येवात्मनि दुःखादीनि संसृतौ संभाव्यते नेतरत्र । ___ इस उपर्युक्त निर्णय करके अपने से सर्वथा भिन्न हो रहे अनेक गुणों वाले आत्मा का भी कर्तापन निरस्त कर दिया गया है क्योंकि कूटस्थ नित्य पदार्थ के (में) नवीन अतिशयों का आधान नहीं होसकता है और पूर्व अतिशयों का परित्याग भी नहीं हो सकता है। अर्थात्-वैशेषिकों के यहाँ सर्वथा नित्य आत्मा के बुद्धि आदि चौदह गुण सर्वथा भिन्न माने गये हैं जब तक आत्मा पूर्व अतिशयों का त्याग कर उत्तर स्वभावों को ग्रहण नहीं करेगा तब तक उसके कतोपन, करणपन, नहीं बन सकते हैं। परिणामी जल में तो अग्नि का सन्निधान हो जाने पर शीत अतिशय की निवृत्ति और उष्ण अतिशय का प्रादुर्भाव होजाता है । नैयायिक या वैशेषिक के यहां आत्मा को परिणामी नहीं माना गया है। तिस ही कारण से दुःख, शोक, आदि की उत्पत्ति में मन भी करण नहीं हो सकता है क्योंकि करण मानने पर
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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