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________________ ५०० श्लोक-वार्तिक पांच विज्ञानों की धारायें चल रही हैं तो दुःख, शोक, आदि के अनुभव स्वरूप पूर्व समयवर्ती वेदनास्कन्ध को उत्तर समयवर्ती दुःख आदि की उत्पत्ति में कर्त्तापन है और उसी वेदनास्कन्ध को दुःख आदि की उत्पत्ति में अधिकरणपना है। सब को स्व में अपना-अपना अधिकरणपना प्राप्त है साथ ही दुःख आदि के हेतु होरहे बहिरंग अर्थ विज्ञान स्वरूप वेदनास्कन्ध को करणपना समुचित ही है जो कि वेदनास्कन्ध उत्तर समयवर्ती उस कार्य से पूर्व समय में वर्त रहा संता मन इस नाम निर्देश के योग्य होरहा है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि अन्वय रहित होकर नष्ट हो चुके वेदनास्कन्ध के कर्त्तापन और करणपन का विरोध है । उत्तर समयवर्ती अपने कार्य के काल में पूर्व समयवर्ती उस वेदनास्कन्ध स्वरूप कर्त्ता या करण का नाश नहीं माना जावेगा तब तो बौद्धों के यहां पदार्थों के क्षण में नष्ट हो जाने स्वभाव का भंग होजायेगा जिसको कि बौद्ध कथमपि सहन नहीं कर सकते हैं । तथैव स्वभावस्य भावस्य स्वात्मैवाधिकरणमित्यप्यसंभाव्यं, शक्तिवैचित्र्ये सति तस्य तदुपपत्तेः तस्याधेयत्वशक्त्याधेयता व्यवस्थितेरधिकरणशक्त्या पुनरधिकरणत्वस्थितिः संवृत्या तदुपपत्तौ परमार्थतो न कर्तादिसिद्धिरिति न दुःखादीनां कर्तादिसाधनत्वं । तिस ही प्रकार स्वभाव या भाव का अधिकरण स्वकीय आत्मा ही है। यह भी बनना बौद्धों के यहाँ असम्भव है। हां भावों की शक्तियों का चित्र विचित्रपना होने पर तो उस भाव का स्वयं अधिकरणपना बन जाता है क्योंकि अपनी आधेयता रूप शक्ति करके उस भाव का आधेयपना व्यवस्थित होरहा है और अधिकरणपन शक्ति करके फिर अधिकरणपना स्व में व्यवस्थित है। तभी तो कांच पानी को धार लेता है घाम को नहीं । वस्त्र घाम को रोक लेता है; जल को नहीं। स्त्री गर्भ धारण कर लेती है पुरुष नहीं; यों गांठ की वास्तविक परिणति अनुसार आकाश में निज की आधेयत्व और अधिकरणत्व शक्ति करके ही स्व प्रतिष्ठा बन रही है। यदि बौद्ध वस्तु शून्य कोरी कल्पना करके उस आधेयपने या अधिकरणपन की प्रसिद्धि करेंगे तब तो परमार्थ रूप से कर्त्ता आदि की सिद्धि नहीं हो सकी। इस प्रकार बौद्धों के क्षणिकपक्ष में दुःख, शोक, आदि शब्दों की कर्ता, करण, आदि में सिद्धि नहीं होसकती है। यहाँ तक अनित्य एकान्त पक्ष में या पर्याय का एकान्त स्वीकार करने पर दुःख आदि शब्दों की निरुक्ति नहीं बन सकी कह दी गयी है । अब नित्यपन के एकान्त का अवधारण करने में दोष उठाते हैं। नित्यत्वैकांतेऽपि न तत्संगच्छते निरतिशयात्मनः कर्तृत्वानभ्युपगमात् । केनचित्सहकारिणाततो भिन्नस्यातिशयस्य करणे तस्य पूर्वाकर्तृत्वावस्थातो अच्युतेः कर्तृत्वविरोधात् । प्रच्युतौ वा नित्यत्वविघातात् तदभिन्नस्यातिशयस्य करणे तस्यैव कृतेरनित्यतैव स्यात् । कथंचित्तस्य नित्यतायां परमताश्रयणं दुर्निवारं । सांख्यमतियों के यहाँ नित्यपन के एकान्त पक्ष में भी वह दुःख, शोक, आदि में कर्त्तापन करणपन नहीं संगत हो पाता है। क्योंकि शक्तियाँ, स्वभाव, परिणतियाँ स्वरूप अतिशयों से रहित होरहे आत्मा का कर्तापन स्वीकार नहीं किया गया है । क्रिया में स्वतंत्र होकर व्यापार कर रहा पदार्थ कर्ता कहा जाता है । अतिशयों से रीता कूटस्थ पदार्थ कथमपि कर्त्ता नहीं हो सकता है। किसी एक सहकारी कारण से उस कर्त्ता में अतिशय किया माना जावेगा, तो प्रश्न उठता है । कि वह अतिशय कर्ता से भिन्न
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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