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छठा अध्याय
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दिव्यवहारणादिति मतं, तदपि न दुःखादिचित्तस्य कश्चक्षुरादिर्न कर्तुरणाधिकरणे तस्य बहिर्भूतरूपादिज्ञानोत्पत्तौ करणत्ववचनात् । नापि मनस्तस्य दुःखादिचित्तसमानकालासंभवात् ।
यदि बौद्ध यों कहें कि चक्षु आदिक तो करण हैं दुःख आदि चित्त का अधिकरण शरीर है । आचार्य कहते हैं कि यह कारकों की उपपत्ति करना भी श्रेष्ठ मार्ग नहीं है क्योंकि उन चक्षु आदि या शरीर की भी उस दुःख आदि के काल में स्थिति नहीं है । घट की उत्पत्ति करने में कुछ काल तक ठहरने वाले दण्ड, चक्र, भूतल, हीं करण या अधिकरण होते हैं क्षणिक पदार्थ कुछ कार्यकारी नहीं हैं। यदि फिर बौद्धों का यह मन्तव्य होय कि दुःख आदि चित्त ही अपने कार्य उत्पादन करने में कर्त्ता है और उस कर्त्ता के उसी समान समय में वर्त रहे चक्षुआदि करण हैं तथा तत्कालीन क्षणिक शरीर अधिकरण होजाता है। केवल व्यवहार से यों कर्त्ता, करण, अधिकरण भाव हैं पारमार्थिक रूप से विचारा जाय तब तो न कोई कर्त्ता है और न कोई करण, अधिकरण आदि हैं। जैनों के यहाँ भी निश्चय अनुसार कोई भिन्न-भिन्न कारकों की व्यवस्था नहीं। मानी गयी है। केवल क्षण-क्षण में होते रहने के सिवाय पदार्थों को क्रिया के कारकपन का अयोग है। हम बौद्धों के यहां ग्रन्थों में ऐसा कथन पाया जाता है कि जिन पदार्थों की क्षण-क्षण में उत्पत्ति होना ही क्रिया है और वही कारक है तथा वह ही उपजना मात्र व्यवहार में अनेक व्यपदेशों से कहा जाता है । नैरात्म्यवादी या अन्यापोहमती बौद्धों के यहां अकर्त्तापन, अकरणपन, आदि की व्यावृत्ति का ही कर्त्तापन, करणपन, आदि निर्देशों से व्यवहार किया जाता है। यहाँ तक कि सभी विद्वानों के यहां | अतद्व्यावृत्ति को ही तत् कहा गया है । धनाढ्य का अर्थ "निर्धन नहीं" इतना ही है। नीरोग का अर्थ "अधिक रोगी नहीं" एतावन् मात्र है । घट का कर्त्ता कुलाल है इसका तात्पर्य यही समझा जाय कि कुम्हार घट का अकर्त्ता नहीं है, यों बौद्धों का मन्तव्य होने पर आचार्य कहते हैं वह मत भी ठीक नहीं है क्योंकि दुःख आदि चित्त स्वरूप कर्त्ता के चक्षु आदिक तो करण और अधिकरण नहीं हो सकते हैं कारण कि बौद्धों के यहाँ विज्ञान से बाहर होरहे रूप आदि के ज्ञान की उत्पत्ति में उन चक्षु आदि के करणपन का कथन किया गया है। तथा मन भी करण नहीं हो सकता है क्योंकि दुःख आदि चित्त के उसी समान काल में उस अनन्तर अतीत विज्ञान स्वरूप मन का असम्भव है अतः पर्याय का एकान्त करने पर दुःख, शोक, आदि की कर्त्ता करण आदि में निरुक्ति नहीं हो सकती है । पहिले अनुभूत किये गये अर्थ के नष्ट हो चुकने को चिन्त रहे अन्वयी पुरुष के शोक आदिक होते हैं किन्तु क्षणिकवाद में स्मरण होना नहीं सम्भवता है स्मरण नहीं होने से शोक आदिक नहीं हो सकते हैं।
ननु रूपादिस्कंधपंचकस्य युगपद्भावादुःखाद्यनुभवात्मकस्य वेदनास्कंधस्य पूर्वस्य कर्तुत्वमुत्तरदुःखाद्युत्पत्तौ तस्यैव चाधिकरणत्वं सर्वस्य स्वाधिकरणत्वात् । दुःखादिहेतोर्वहिरर्थ विज्ञप्तिलक्षणस्य वेदनास्कन्धस्य चोत्तरात्कार्यात्पूर्वस्य मनोव्यपदेशमईतः करणत्वं युक्तमेवेति चेन्न, निरन्वयनष्टस्य कर्तृकरणत्वविरोधात् । स्वकार्यकाले तदनाशे वा क्षणभंगविघातः ।
पुनः बौद्ध अपने पक्ष का अवधारण करते हुये कहते हैं कि रूपस्कन्ध, वेदनास्कन्ध, विज्ञानस्कन्ध, संज्ञास्कन्ध, संस्कारस्कन्ध, इन रूप आदि पांचों स्कन्धों की युगपत् उत्पत्ति होती रहती है जब कि