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________________ ४९८ श्लोक-वार्तिक बना लिया जाय, परि उपसर्ग पूर्वक दिव धातु से कर्त्ता आदि में ल्युद् प्रत्यय कर परिदेवन शब्द साधु सिद्ध कर लिया जाय। तदेकांतावधारणोऽनुपपन्नमन्यतरैकांतसंग्रहात्। पर्यायैकांते हि दुःखादिचित्तस्य कर्तृत्वसंग्रहः करणादित्वसंग्रहो वा स्यान्न पुनस्तदुभयसंग्रहः । तत्र कर्तृत्वसंग्रहस्तावदयुक्तः करणाद्यभावे तदसंभवात् । मनः करणं संतानोऽधिकरणमित्युभयसंग्रहोऽपि श्रेयान्, कर्तृकाले स्वयमसतः पूर्वविज्ञानलक्षणस्य मनसः करणत्वायोगात् षण्णामनंतरातीतं विज्ञाने यद्धि तन्मन इति वचनात् । संतानो न वस्तु ततोऽधिकरणत्वानुपपत्तेः खरविषाणवत् । ___ यदि दुःख आदिकों की कर्ता ही या कर्म ही में निरुक्ति कर सिद्धि कर देने के एकान्त का अबधारण किया जावेगा तो अभिप्रेत अर्थ की उपपत्ति नहीं हो सकती है क्यों कि एकान्तवादियों ने पर्याय और द्रव्य आत्मक वस्तु के दोनों अंशों में से एक ही एकान्त का समीचीनतया ग्रहण कर रक्खा है । देखिये केवल पर्याय का ही एकान्त लिया जायगा तब तो दुःख, शोक, आदि स्वरूप चित्त को कर्त्तापने का संग्रह हो सकेगा अथवा दुःख आदि चित्त को करण, अधिकरण, आदिपने का संग्रह हो सकेगा किन्तु फिर उन दोनों का संग्रह तो नहीं हो सकेगा। अब यह विचारना है कि उनमें पहिला कर्तापने का संग्रह करना तो अयुक्त है क्योंकि पर्याय एकान्त में आत्म द्रव्य के विना कर्तापने का संग्रह नहीं हो सकता है । करण आदि का अभाव होने पर उस कर्त्तापने का असम्भक है । बौद्धों के यहाँ क्षणिक पक्ष अनुसार क्षणभंगी पर्यायों में कर्तापन, करणपन आदि अवस्थायें नहीं बन पाती हैं। यदि बौद्ध यों कहें कि मन इन्द्रिय को करण और विज्ञान की सन्तान को अधिकरण मानते हुये यों दोनों का संग्रह हो जायगा । ग्रन्थकार करते हैं कि यह उपपत्ति करना भी श्रेष्ठ नहीं है क्योंकि कर्त्ता कारक के काल में स्वयं अविद्यमान होरहे पूर्वकालोन विज्ञान स्वरूप मन के करणपन का अयोग है । आपने जैनों के भाव मन समान विज्ञान को ही मन माना है। बौद्ध ग्रन्थों में इस प्रकार कथन किया गया है कि छह आयतन या छह विज्ञानों के अव्यवहित पूर्ववर्ती जो विज्ञान हैं वह मन है। वैशेषिकों के मनोद्रव्य समान या जैनों के द्रव्यमन समान कोई स्वतंत्र मन पदार्थ बौद्धों के यहाँ नहीं माना गया है अतः मन तो करण हो नहीं सकता है जब कि कर्ता के समय में पूर्व क्षणवर्ती विज्ञान स्वरूप मन का ध्वंस हो चुका है। दसरा विज्ञान की सन्तान को जो अधिकरण कहा गया है वह भी ठीक नहीं पड़ता है। क्योंकि सन्तान कोई वस्तुभूत पदार्थ नहीं माना गया है पहिले पीछे मरे हुये मुदों की पंक्ति जैसे कोई परमार्थ स्वरूप मनुष्यों की धारा नहीं है तिस कारण खरविषाण के समान अवस्तुभूत सन्तान को अधिकरणपना नहीं बन पाता है। चक्षुरादिकरणं शरीरमधिकरणमित्यपि न श्रेयस्तस्यापि तत्काले स्थित्यभावात् । यदि पुनर्दुःखादि चित्तं कर्तृ स्वकार्योत्पादने तत्समानसमयवर्ति चक्षुरादिकरणं शरीरमधिकरणं व्यवहारमात्रात् । परमार्थतस्तु न किंचित्कर्तृ करणादि वा भूतिमात्रव्यतिरेकेण भावानां क्रियाकारकत्वायोगात् । भूतियेषां क्रिया सैव चोयते इति वचनात् । सर्वस्याकर्तृत्वादिव्यावृत्तेरेव कर्तृत्वा
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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