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छठा-अध्याय
४९१ प्रतिभासात, आदि का आवरण कर देते हैं ? बताओ। यों आप अद्वैतवादियों के ऊपर भी हम जैनों की
ओर से वैसा का वैसा ही समान पर्यनुयोग उठा दिया जा सकता है कोई अन्तर नहीं है जिस ही प्रकार तुम अद्वैतवादी यह अभियोग उठाओगे कि मूर्त को यदि ज्ञान आदिकों का आवारक होना माना जायेगा तो जीव सम्बन्धी शरीर को भी ज्ञान आदिकों के आवारकपने का विशेषतया प्रसंग आजावेगा "शरीरं पुस्तकादिकं वा ज्ञानादेरावारकं स्यात् मूर्तत्वात्कार्मणस्कंधवत्" अतः अर्मूत का आवरण करनेवाला मूर्त नहीं हो सकता है यह सिद्धान्त मान लो, तिस ही प्रकार हम जैन भी तुम्हारे ऊपर यह प्रसंग उठा सकते हैं कि अर्मूत अविद्या आदि का सद्भाव होने पर ज्ञान आदिकों का आवरण होना मानोगे तो अमूर्त आकाश को भी उन ज्ञान आदिकों के आवारकपन का चारों ओर से प्रसंग आजावेगा अथवा अमूर्त ज्ञान का दूसरा अमूर्त ज्ञान आवारक बन बैठेगा "गगनादिकं ज्ञानान्तरं च ज्ञानादेरावारकं स्यात् अमूर्तत्वात अविद्यावत" जो कि तमने इष्ट नहीं किया है। यदि आप अतवादी यों कहें कि गगन आदिक तो उन ज्ञान आदिकों के विरुद्ध नहीं हैं अतः वे उनके आवरण नहीं हो सकते हैं यों कहने पर तो हम जैन भी कह देंगे कि तिस ही कारण से यानी ज्ञनादिक का विरोधी नहीं होने से मूर्त शरीर भी ज्ञान आदि का आवारक नहीं है जो उन ज्ञान आदि से विरुद्ध पदार्थ होगा उसी को उन ज्ञान आदिकों के आवारकपन को सिद्धि है। भावार्थ-अपने प्रासाद में भींते, किवाड़, सीकचे, सांकले और सिपाही हैं तथा कारागृह में भी वैसे ही भीते आदि हैं किन्तु वे अपने विरुद्ध हैं और अपने घर के सींकचे आदि अविरुद्ध हैं मित्र या स्नेही सम्बन्धी भी अपने बंधु को रोक लेता है। राजकर्मचारी भी अपराधी को रोके रहते हैं किन्तु इन दोनों में महान् अन्तर है । वस्तुतः देखा जाय तो शरीर भी एक छोटे प्रकार का आवारक है। हिंसक क्रूर जीवों के शरीरों अनुसार संयमपालन नहीं हो सकता है। अपने शरीर के बन्धन अनुसार स्त्रियों की आत्मा भी सर्वोच्च पद को नहीं पा सकती है । भावना होते हुये भी देव-देवियों के शरीर संयम नहीं पलने देते हैं । रोग ग्रस्त शरीर अनेक अड़चनें उपजाता है । अनेक प्राणियों के आत्माओं की समानता होने पर भी उनके न्यारे न्यारे शरीरों की परवशता से भिन्न-भिन्न प्रकार जघन्यविचार उपजते रहते
क पण्डित भी शरीर आकृति के अनुसार तादृश भावों का उपजना आवश्यक मानते हैं वे वीर क्रूर,विशेष ज्ञानी, पुरुषों के मस्तक, हृदय, के अवयवों को देखते हैं मोल लेलेते हैं। आयुष्य कर्म द्वारा शरीर में कैद कर दिया गया आत्मा स्वतंत्र या चाहे जहाँ नहीं जा पाता है। हमें सर्वत्र शरीर को लाद कर जाना पड़ता है । अतीव स्थूल पुरुष सम्मेद शिखर जी की वन्दना पांवों चल कर नहीं कर पाता है। भोजन या शयन के लिये भले ही शरीर को साथ ले लिया जाय किन्तु ज्ञानाभ्यास सामायिक, संयमपालन आदि क्रियाओं के लिये यह भारो शरीर हमें खींचना, ढोना, पड़ता है हाँ समितिपालन, शास्त्रश्रवण, तीर्थगमन, आहारदान, दीक्षाधारण, तपश्चरण आदि कर्तव्यों में शरीर उपयोगी पड़ता है इस कारण यह ज्ञानादिकों का आवारक नहीं माना गया है। अन्यदष्ट कारणों में अन्वयव्यभिचार और व्यतिरेकव्यभिचार आजाने से अन्यथानुपपत्ति के बल पर पौद्गलिक कर्मों को ही ज्ञान आदि का आवारकपना सिद्ध हो जाता है।
स्यान्मतं ज्ञानादेर्वर्तमानस्य सतोऽप्यविद्याधुदये तिरोधानात्तदेव तद्विरुद्धं तदावरणं युक्तं न पुनः पौद्गलिकं कर्म तस्य तद्विरुद्धत्वासिद्धेरिति । तदसत् तस्यापि तद्विरुद्धत्वप्रतीतेः सुरादिद्रव्यवद् ।
सम्भवतः अद्वैतवादियों का यह भी मन्तव्य होवे कि आत्मा में सत्ता रूप से विद्यमान होरहे