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श्लोक-वार्तिक भी ज्ञान आदिकों का अविद्या आदि का उदय हो जाने पर तिरोभाव होजाता है। जैसे कि डिब्बी में रत्न का तिरोधान हो गया है । सांख्य भी आविर्भाव, तिरोभाव, को स्वीकार करते हैं उत्पाद, बिनाश, को नहीं। "नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः" आत्मा में सत् हो रहे ज्ञान का ही अविद्या, अहंकार, ममता, तवता, विवेकाख्याति आदि से आवरण हो गया है अतः वे अविद्या आदिक ही उन ज्ञान आदिकों के विरुद्ध होरहे सन्ते उनके आवरण समुचित कहे जा सकते हैं किन्तु फिर जैनों के यहां माने गये पौदगलिक कर्मों को आवरण कहना युक्त नहीं क्योंकि उन पौद्गलिक कर्मों को उन ज्ञान आदिकों का विरोधीपना सिद्ध नहीं है जैसे कि शरीर, पुस्तक, उपनेत्र ( चश्मा ), विद्यालय, भोजन, ब्राह्मी, बादाम, आदि पौद्गलिक पदार्थ ज्ञान के विरोधी नहीं हैं। यों कह चुकने पर आचार्य बोलते हैं कि अद्वैतवादियों का वह मन्तव्य प्रशंसनीय नहीं है कारण कि मदिरा, भांग, आदि द्रव्यों के समान उन पौद्गलिक कर्मों को भी उन ज्ञान आदिकों के विरोधीपन की प्रतीति होरही है सभी पुद्गल न तो ज्ञान के सहायक हैं और विरोधी भी नहीं हैं । हां, नियत पुद्गल ज्ञान के सहायक भी हैं और कोई कोई ज्ञान के विरोधी भी हैं। अनेक पुद्गलों से सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रों को सहायता प्राप्त होती है और कितने ही पौद्गलिकपदार्थों से मिथ्यादर्शन ज्ञान चारित्रों को सहकारिता मिलती है । कोई एकान्त नहीं है । ज्ञानावरण आदि पौद्गलिक कर्म अवश्य ही ज्ञानादि गुणों के आवारक हैं यह निर्णीत विषय है।
ननु मदिरादिद्रव्यमविद्यादिविकारस्य मदस्य ज्ञानादिविरोधिनो जनकत्वात् परंपरया तद्विरुद्धं न साक्षादिति चेत्, पौद्गलिकं कर्म तथैव तद्विरुद्धमस्तु तस्यापि विज्ञानविरुद्धाज्ञानादिहेतुत्वात् तस्य भावावरणत्वात् । न च द्रव्यावरणापाये भावावरणसंभवेऽतिप्रसंगात् । मुक्तस्यातत्याप्तेरपि वारणात् । तस्य सम्यग्ज्ञानसात्मीभावे मिथ्याज्ञानादेरत्यंतमुच्छेदात्तस्योदये तदात्मनो भावावरणस्य सद्भावात् ।
वे ही पण्डित पुनः अपने पक्ष का अवधारण करते हैं कि मदिरा, भांग, गांजा, आदि द्रव्य तो ज्ञान स्वस्थता, विचारशालिता, आदि के विरोधी होरहे और अविद्या, नशा, आदि विकारों के धारी मद के जनक होने के कारण परम्परा करके उन ज्ञानादि के विरोधी हैं। मदिरा आदि द्रव्य अव्यवहित रूप से ज्ञानादि के विरोधी नहीं हैं। अर्थात्-मदिरा आदिक द्रव्य पहिले अविद्या आदि विकार स्वरूप मद को उपजाते हैं और वह मद पुनः ज्ञान आदि की उत्पत्ति में विरोध ठानता है अतः अविद्या आदि को ही आवरण मानो, पौद्गलिक कर्म को नहीं। यों स्वपक्ष को पुष्ट कर रहे अन्यवादियों के कह चुकने पर ग्रन्थकार कहते हैं कि तब तो पुद्गल द्रव्य से उपादेय हुआ कर्म भी तिस ही कारण यानी ज्ञान आदि के साथ विरोध ठान देने से उन ज्ञान आदिकों का विरोधी सिद्ध हो जाओ क्योंकि उन कर्मों को भी विज्ञान के विरुद्ध होरहे अज्ञान आदि का हेतुपना प्राप्त है । भाव आवरण स्वरूप ही वह अज्ञान है द्रव्य आवरण होरहे पौद्गलिक कर्मों का अभाव मानने पर अज्ञान, राग, द्वेष, आदि भाव आवरणों का होना नहीं सम्भवता है अति प्रसंग हो जायेगा । मुक्त जीव के भी उन अज्ञानादिकों की अप्राप्ति का निवारण हो जायेगा अर्थात्-द्रव्य आवरणों के बिना भी यदि भाव आवरण होने लगें तो कर्म विनिर्मुक्त सिद्ध परमेष्ठी के भी अज्ञान, राग, द्वषविकार बन बैठेंगे । वैशेषिकों ने योगज प्रत्यक्ष के दो भेद किये हैं "योगजो द्विविधः प्रोक्तः युक्तयुञ्जानभेदतः। युक्तस्य सर्वदाभानं चिन्तासहकृतोऽपरः" युक्त के कोई अविद्या या