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________________ ४९० श्लोक-वार्तिक तिस ही कारण से यानी विपक्ष में वृत्ति नहीं होने से यह हेतु विरुद्ध हेत्वाभास भी नहीं है क्योंकि एक देशत्वेन या सर्वदेशत्वेन सभी प्रकारों से विपक्ष में हेतु का वर्तना नहीं होने के कारण अविरुद्ध होना बन जाता है । यहाँ उक्त हेतु को संदिग्ध व्यभिचारी बनाता हुआ कोई चोद्य उठाता है कि विपक्ष में वर्त जाने के बाधक अभाव हो जाने से यह हेतु संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिक है "संदिग्धा विपक्षे व्यावृत्तिर्यस्य" जिस हेतु का विपक्ष से व्यावृत्ति होना संदेह प्राप्त है लोक में किसी पुरुष या स्त्री के विषय में व्यभिचार का संदेह हो जाना भी एक दोष माना गया है उसीप्रकार शास्त्र में हेतु का संदिग्धव्यभिचार दोष है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि साध्य का अभाव होने पर विपक्ष में साधन के अभाव बने रहने का प्रतिपादन किया जा चुका है। अर्थात्-जिस आत्मा में जिन गुणों के आवरण करने वाले पुद्गलों का समागम नहीं होरहा है उस आत्मा में उन गुणों के दूपक प्रदोष आदिकों का अभाव है यों व्यतिरेक व्याप्ति अनुसार हेतु का विपक्ष में नहीं वर्तना स्वरूप ब्रह्मचर्य गुण निर्णीत हो चुका है। यस्य यद्विषयाः प्रदोषादयस्तस्य तद्विषयास्तदविधैव न पुनस्तदावरणपुद्गलः सिद्धयेत् ततो न तत्प्रदोषादिभ्यो शानदर्शनयोरावरणपुद्गलप्रसिद्धिरिति न शंकनीयं, तदावरणस्य कर्मणः पौद्गलिकत्वसाधनात् । कथं मूर्त कर्मामूर्तस्य ज्ञानादेरावरणमिति चेत्, तदविद्यायमूर्त कथमिति समः पर्यनुयोगः। यथैव मूर्तस्यावारकत्वे ज्ञानादीनां शरीरमावारकं विप्रसज्यं तथैवामूर्तस्य सद्भावे तेषां गगनमावारकमासज्येत । तदविरुद्धत्वान्न तत्तदावारकमिति चेत्, तत एव शरीरमपि तद्विरुद्धस्यैव तदावारकत्वसिद्धेः । यहाँ ब्रह्माद्वैतवादी अपने स्वपक्ष का अवधारण करते हैं कि जिस जीव के जिस विषय में हो रहे प्रदोष, निन्हव, आदि दोष हैं उसके उन विषयों का आवरण कर रही तो अविद्या ही है किन्तु फिर उन गुणों का आवरण करने वाला कोई कार्मणस्कन्ध स्वरूप पुद्गल सिद्ध नहीं हो पायेगा तिस कारण उन ज्ञान या दर्शन में हुये प्रदोष आदिकों से ज्ञान और दर्शन का आवरण करने वाले ज्ञानावरण पुद्गलों की प्रसिद्धि नहीं हो सकती है। आचार्य कहते हैं कि अद्वतवादियों को हृदय में ऐसी ॥ नहीं रखनी चाहिये क्योंकि उन ज्ञान आदि का आवरण करने वाले कर्मों का पुद्गल द्रव्य से निर्मितपना साधा जा चुका है। "अप्रतीघाते" सूत्र के विवरण में "कमपुद्गलपर्यायो जीवस्य प्रतिपद्यते परतंत्र्यनिमित्तत्वात्कारागारदिबंधवत्" यों कर्म को पौद्गलिक सिद्ध कर दिया है और भी कई स्थलों पर कर्मों का पुद्गलात्मकपना निर्णीत कर दिया है। आगे भी "सकषायत्वाज्जीवः” आदि सूत्र के अलंकार में “पुद्गलाः कर्मणो योग्यः केचित् मूर्थियोगतः, पच्यमानत्वतः शालिबीजादिवदितीरित' आदि कहा जावेगा। यदि अद्वैतवादी यों कहें कि अमूर्त हो रहे ज्ञान, दर्शन, आदि का आवरण करने वाला भला मूर्त कर्म किस प्रकार हो सकता है ? मूर्त सूर्य के ही मूर्त बादल आवारक हो सकते हैं घर की भीते या छते विचारी मूर्तशरीर, भूषणों, वस्त्रों को छिपा लेती हैं आकाश को नहीं। यों वेदान्तियों के कहने पर तो हम जैन भी चोद्य उठावेंगे कि आपके यहाँ वे अविद्या, भेदविज्ञान, मोह, आदिक भला अमूर्त हो रहे किस प्रकार एकत्वज्ञान
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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