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श्लोक-वार्तिक
रंग बहिरंग कारणों अनुसार हुये आस्रवों के अनेक भेद हैं । कषाय रहित जीवों के साम्परायिक आस्रव नहीं हो पाता है ।
बहुविधक्रोधादिकषायानुग्रहीतात्मनां जीवाजीवाधिकरणानां बहुप्रकारत्वोपपत्तेस्तदाश्रितानामिद्रियाद्यास्रवाणां बहुप्रकारत्वसिद्धिः । तत एव मुक्तात्मनोऽकषायवतो वा न तदास्रवप्रसंग: ।
बहुत प्रकार यहाँ तक कि असंख्याते प्रकार के क्रोध आदि कषायों से अनुग्रह को प्राप्त हो रहे जीवों के आस्रव के अवलम्बकारण जीवाधिकरण और अजीवाधिकरण बहुत प्रकार बन रहे हैं अथवा अनेक प्रकार के क्रोधादि कषायों से अनुग्रहीत स्वरूप जीवाधिकरणों और अजीवाधिकरणों का बहुत प्रकार सहितपना उचित है । जीवाधिकरणों पर जैसे कषायों का अनुग्रह है उसी प्रकार भक्त, पान, उपकरण, शरीर आदि पर भी कषायों की सहकारिता है । तभी ये अजीव अधिकरण अनेक आस्रव हो जाते हैं। हाँ, जिन अजीवों पर कषायों का अनुग्रह नहीं है वे अजीव कथमपि आस्रव नहीं हैं । कषाय रहित जीवों के कोई भी जीव या अजीव अधिकरण आस्रव नहीं है । इस कारण उन अधिकरणों के आश्रित Fire इन्द्र आदि आस्रवों के बहुत प्रकारपन की सिद्धि होजाती है । तिस ही कारण से यानी कषायों की सहकारिता मिलने पर इन्द्रिय आदि आस्रवों के होने का नियम होने से मुक्त जीव सिद्ध परमेष्ठियों के अथवा कषायोदय से रहित होरहे ग्याहमे, तेरहमे, चौदहमे गुणस्थान वाले अकषाय जीवों के उस साम्परायिक आस्रव हो जाने का प्रसंग नहीं आता है ।
कुतस्ते तथा सिद्धा एवेत्याह ।
किस कारण से वे साम्परायिक आस्रव के भेद मान लिये गये इन्द्रिय आदिक तिस प्रकार यानी आस्रवभेदपने करके सिद्ध ही हैं ? बताओ । ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर ग्रन्थकार समाधानार्थ इस अगली वार्त्तिक को कहते हैं ।
बाधकाभावनिर्णीतेस्तथा सर्वत्र सर्वदा ।
सर्वेषां स्वष्टवत्सिद्धास्ती व्रत्वादिविशिष्टवत् ॥३॥
सभी देशों में, सभी कालों में और सभी जीवों के तिस प्रकार इन्द्रिय आदि को आस्रवपन की सिद्धि के बाधक प्रमाणों के अभाव का निर्णय होरहा है जैसे कि तीव्रत्व, मन्दत्व, आदि धर्मों से विशिष्ट हर साम्परायिक आस्रव के भेदों का निर्णय होरहा है सभी वादी प्रतिवादियों के यहाँ अपने-अपने अभीष्ट पदार्थों को सिद्धि तिसी प्रकार यानी "असम्भवद्बाधकत्वात्" होती है । विशेषतया परोक्ष पदार्थों की सिद्धि तो बाधकों का असम्भव होजाने से ही होती है । कोई करोड़पति सेठ अपने सभी रुपयों को सबके सम्मुख उछालता या गिनाता नहीं फिरता है, मानसिक आधियों या पीड़ाओं को कोई हाथों पर धर कर नहीं दिखला देता है, सभी पापाचार या पुण्याचार सब के प्रत्यक्ष गोचर नहीं होरहे हैं, द्रव्यों के उदर में अनेक स्वभाव, अविभाग प्रतिच्छेद, परिणमन, छिपे हुये पड़े हैं बाधकों का असम्भव होजाने से ही उनका सद्भाव मान लिया जाता है ।
यथैव हि तीव्रमंदत्वादिविशिष्टाः सांपरायिकास्रवस्य भेदाः सुनिश्चितासंभवद्द्बाधकप्रमाणत्वात्सिद्धास्तथा जीवाजीवाधिकरणाः सर्वस्य तत एवेष्टसिद्धेः ।