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छठा-अध्याय ततोऽधिकरणं प्रोक्तं परं निर्वर्तनादयः ।
द्वयादिभेदास्तदस्य स्यादजीवात्मकमेव हि ॥१॥ उन पूर्व सूत्रोक्त संरम्भ आदि जीवाधिकरण से भिन्न होरहे ये निर्वर्तना आदिक अधिकरण सूत्रकार महाराज करके बहुत अच्छे कहे जा चुके हैं तिस कारण इस अजीवाधिकरण के दो, चार आदि भेद वाले निर्वर्तना, निक्षेप, आदि नियम से अजीवस्वरूप ही हैं।
निर्वर्तना द्विधा, मलोत्तरभेदात् । निक्षेपश्चतुर्धा, अप्रत्यवेक्षणदुःप्रमार्जनसहसानाभोगभेदात् । त एते निर्वर्तनादयो द्वयादिभेदाः परमाधजीवाधिकरणादिष्टमधिकरणमस्याजीवात्मकत्वात् ।
मूलगुण निर्वर्तना अधिकरण और उत्तरगुण निर्वर्तनाधिकरण इन भेदों से निवर्तना दो प्रकार की है । मूलगुणनिर्वर्तना अधिकरण के शरीर, वचन, मन, प्राण, और अपान ये पांचभेद हैं तथा काष्ठ, पाषाण की मूर्तियां बनाना या स्त्री, पशु, पक्षी, मनुष्यों आदि के चित्र निर्माण करना यों उत्तरगुण निर्वतना अधिकरण आस्रव अनेक प्रकार है तथा अप्रत्यवेक्षितनिक्षेपाधिकरण, दुःप्रमार्जननिक्षेपाधिकरण, सहसानिक्षेपाधिकरण, अनाभोगनिक्षेपाधिकरण इन भेदों से निक्षेप चार प्रकारका है। जन्तु हैं या नहीं हैं इस प्रकार चक्षु से नहीं देख कर निक्षेप और कोमल उपकरण की नहीं अपेक्षा रखते हुये खोटे प्रमाजन अनुसार निक्षेप कर देना तथा बिना विचारे सहसा मल, मूत्र, पात्र आदि का निक्षेप कर देना तथैव बिना देखे उपकरण आदि का स्थापन कर देना ये निक्षेप अधिकरण हैं। खाने पीने की वस्तुओं के संयोग का अधिकरण और अन्य उपकरणों के संयोग का अधिकरण यों दो प्रकार संयोग है । काय, वचन, मन इन तीन का निसर्ग यानी मनचाहा कहीं भी मन-चलाना या कुछ भी वचन बोल देना या चाहे जहाँ शरीर का निसर्ग कर देना यों तीन प्रकार निसर्गाधिकरण है । ये सब दो आदि भेद वाले वे निर्वर्तना आदि तो आदि के जीवाधिकरण से न्यारे या इष्ट होरहे अधिकरण हैं इनको अजीव आत्मक होने से अजीवाधिकरणपना इष्ट किया गया है।
नन्वेवं जीवाजीवाधिकरणद्वैविध्याद् द्वावेवास्रवौ स्यातां न पुनरिद्रियादयो बहुप्रकाराः कथंचिदास्रवाः स्युः सर्वांश्च कषायानपेक्षानपि वा जीवाजीवानाश्रित्य ते प्रवर्तेरन्नित्यारेकायामिदमाह ।
___ यहाँ कोई शंका उठाता है कि इस प्रकार जीवाधिकरण और अजीवाधिकरण यों दो प्रकार अधिकरणों के होजाने से आस्रव भी दो ही होंगे फिर इन्द्रिय, कषाय, आदिक बहुत प्रकार के आस्रव तो कैसे भी नहीं होसकते हैं अथवा यों छोटे-छोटे कारणों से आस्रवों के भेद कर दिये जायेंगे तो कषायों को नहीं अपेक्षा रखने वाले भी जीवों और अजीवों का आश्रय पाकर वे आस्रव प्रवर्त जावेंगे, इस प्रकार आशंका के प्रवर्तने पर ग्रन्थकार समाधानार्थ इस अग्रिम वार्तिक को कहते हैं।
जीवाजीवान्समाश्रित्य कषायानुग्रहान्वितान् ।
आस्रवा बहुधा भिन्नाः स्युनृणामिद्रियादयः ॥२॥ कषायों की सहकारिता से सहित होरहे जीव और अजीवों का अच्छा आश्रय लेकर संसारी जीवों के इन्द्रिय, कषाय, आदिक हो रहे आस्रव बहुत प्रकार के भिन्न भिन्न हो सकते हैं। अर्थात्-अन्त