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________________ छठा-अध्याय ४८३ कारण की जिस प्रकार तीव्रत्व, मंदत्व, आदि विशेषणों से सहित होरहे साम्परायिक आस्रव के अनेक भेद उस बाधक प्रमाणों के असम्भवने का अच्छा निर्णय होजाने से सिद्ध हैं उसी प्रकार जीवाधिकरण अजीवाधिकरण ये भेद भी असम्भवबाधक होजाने से सिद्ध होजाते हैं। सभी विद्वानों के यहाँ उस बाधक प्रमाणों का असम्भव होजाने से ही अपने अभीष्ट पदार्थों की सिद्धि कर ली जाती है । अर्थात्कचित्, कदाचित् , किसी, एक व्यक्ति को बाधकप्रमाणों का असम्भव तो भ्रान्ति ज्ञानों में भी होजाता है सीप में चांदी का ज्ञान करने वाले पुरुष के उस समय वहां कोई बाधक प्रमाण नहीं उपजता है। बहुत से व्यक्तियों के कई भ्रान्ति ज्ञानों में तो उस पूरे जन्म में भी बाधा खड़ी नहीं होती है। रेल गाड़ी में जा रहे किसी मनुष्य को कासों में जल का ज्ञान हो गया फिर उस मार्ग से कभी लौटना हुआ ही नहीं जिससे कि निर्णय किया जाता । कैई भोली स्त्रियां पीतल की अंगूठी को सोने की ही जन्म भर समझती रहीं बेचने या परखाने का अवसर भी नहीं मिला। अतः सभी कालों में, सभी देशों में, और सभी व्यक्तियों काभाव को प्रमाणता का प्रयोजक कहा गया है। यहां भी सब स्थानों पर सभी कालों में सभी जीवों के बाधक प्रमाणों का असम्भव हो जाने से साम्परायिक आस्रव के भेदों की सिद्धि कर दी गई है। एवं भमा कर्मणामास्त्रवो यं सामान्येन ख्यापितः सांपरायी। तत्सामर्थ्यादन्यमीर्यापथस्य प्राहुलस्ताशेषदोषाश्रयस्य ॥४॥ यों उक्त प्रकार सामान्य रूप से व्याख्या कर प्रसिद्ध कर दिया गया यह कर्मों का साम्परायिक आस्रव बहुत प्रकार का है। उस साम्परायिक आस्रव के कथन की सामर्थ्य से ही विना कहे यह जान लिया जाता है कि जिसने अनेक दोषों का आस्रवपना नष्ट कर दिया है ऐसे ईर्यापथ के आस्रव को सूत्रकार महाराज बहुत अच्छा भिन्न कह रहे हैं । अर्थात्-यदि कोई यों कहे कि “इन्द्रियकषायाः" आदि इस सूत्र से प्रारम्भ कर पांच सूत्रों में श्री उमास्वामी महाराज ने साम्परायिक आस्रव का ही विस्तृत निरूपण किया है दूसरे ईर्यापथ आस्रव के भेदों का कोई व्याख्यान नहीं किया है, इस पर ग्रन्थकार का कहना है कि अनेक कारण या विशेषणों से जितने साम्परायिक के भेद हो जाते हैं उतने ईर्यापथ के नहीं। ग्यारहमे, बारहमे, तेरहमे, गुणस्थानों में केवल सातावेदनीय कर्म का एक समय स्थिति वाला आस्रव होता है जो कि राग, द्वेष, मोह, अज्ञान, अदान, नीचाचरण, भवधारण करना, शरीर रचना करना आदि दोषों से रहित है अतः परिशेष न्याय से ही जान लिया जाता है कि सूत्रकार साम्परायिक से ईर्यापथ को भिन्न कह रहे हैं जो प्रमेय अर्थापत्ति से लब्ध हो जाता है उसको थोड़े शब्दों द्वारा अपरिमित अर्थ को कहने वाले सूत्रों करके कण्ठोक्त करना समुचित नहीं है । ग्रन्थकार ने इसी रहस्य को इस शालिनी वृत्त द्वारा ध्वनित कर दिया है। यथोक्तप्रकारेण सकषायस्यात्मनः सामान्यताऽस्यास्रवस्य ख्यापने सामर्थ्यादकषायस्य तैरीर्यापथासवसिद्धिरिति न तत्र सूत्रकाराः सूत्रितवंतः, सामर्थ्य सिद्धस्य सूत्रणे फलाभावादतिप्रसक्तश्च । विशेषः पुनरीर्यापथावस्याकषाययोगविशेषाद्बोद्धव्यः ।। कषाय सहित जीवों के होरहे सामान्य रूप से आम्नाय अनुसार पूर्व कथित प्रकारों करके साम्परायिक आस्रव का विज्ञापन कर चुकने पर बिना कहे ही सामर्थ्य से उन्हीं सूत्रों करके कषाय रहित जीव के ईर्यापथ आस्रव की सिद्धि होजाती है इस कारण सूत्रकार श्री उमास्वामी महाराज वहाँ सूत्रों
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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