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________________ पंचम-अध्याय अव सूत्रकार उत्सर्ग यानी सामान्य विधि से पुद्गलों के भी रूप--रहितपन का प्रसंग प्राप्त होने पर उसका अपवाद (प्रतिषेध या विशेष) निरूपण करने के लिये इस अगले सूत्र को कहते हैं रूपिणः पुद्गलाः॥५॥ ___ पुद्गल द्रव्य रूपवाले होते हैं अर्थात्-रूप रसादि संस्थान परिणाम वाले पुद्गल द्रव्य मूर्त हैं अतः अपवाद को टालकर उत्सर्ग विधियां प्रवर्ततीं हैं । यो पुद्गल के अतिरिक्त शेष पांच द्रव्यों में पूर्व सूत्र अपुसार अरूपपना समझा जाय । रूपशब्दस्यानेकार्थत्वेपि मूर्तिमत्पर्यायग्रहणं, शास्त्रसामर्थ्यात् । ततो रूपं मूर्तिरिति गृह्यते रूपादिसंस्थानपरिणामो मृति-रिति वचनात् गुणविशेषवचनग्रहणं वा रसादीनां तदबिनाभावाचदंतर्भूतत्वादग्रहणाभावात् । रूपमेतेष्वस्तीति रूपिण इति नित्ययोगे कथंचिद्व्यतरेकिरणां रूपतद्वतामिति , पुद्गला इति बहुवचनं भेदप्रतिपादनाथं तदेवं । ____ रूप शब्द के अनेक अर्थ होने पर भी यहां प्रकरण अनुसार मूर्तिमान् पर्याय को कहने वाले रूप शब्द का ग्रहण है क्योंकि अर्हन्तभगवान् करके कहे गये और गणधर देव करके धारण किये गये शास्त्र की सामर्थ्य से अर्थयह लब्ध हो जाता है कि स्वभाव, अभ्यास, श्रवण तादात्म्य आदि ये रूप शब्द के अर्थ अभीष्ट नहीं हैं, तिस कारण रूप का अर्थ "मूर्ति" यह ग्रहण किया जाता है। रूप, रस आदि संस्थान परिणाम मूर्ति हैं इस प्रकार शास्त्रों में वचन है अथवा गुण विशेष को कथन करने वाले रूप शब्द का यहां ग्रहण है जो कि गुण चक्षुः द्वारा ग्रहण करने योग्य है या काली, नीली, आदि पर्यायों से परिणत होता है। __ यहां रूप शब्द उपलक्षण है अतः उस रूप के साथ अविनाभाव सम्बन्ध हो जाने से उस रूप में ही अन्तर्भूत हो जाने के कारण रस, गन्ध आदिकों के नहीं ग्रहण हो सकने का अभाव है अर्थात्रूप के अविनाभावी सभी रस आदिक परिणाम रूप का ग्रहण करने से पकड़ लिये जाते हैं। इन पुद्गलों में रूप विद्यमान है यों विग्रह कर कथंचित् भेद को धार रहे रूप और उस रूप वाले पुद्गलों का नित्य योग होने पर रूप शब्द से मत्वर्थीय इन् प्रत्यय करते हुये "रूपिणः" यह बहुवचन शब्द बन जाता है । सूत्रकार ने उद्देश्य दल में "पुद्गलाः यह जस् विभक्ति वाला बहुवचनान्त रूप तो पुद्गल के भेदों की प्रतिपत्ति कराने के लिये कहा है अर्थात्-अणु, स्कन्ध, या परमाणु, संख्यातवर्गणा प्रसंख्यातवर्गणा, पाहारवर्गणा भाषावर्गणा आदि पुद्गल के अनेक भेद हैं। तिस कारण इस प्रकार होने पर जो सूत्रकार का अभिप्राय ध्वनित हुआ उसको वात्तिक द्वारा यों समझो कि
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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