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________________ ३२ श्लोक- वार्तिक क्रियाओं का भी मूर्ति सहित - पना और मूर्ति रहितपना विचार लिया गया समझ लेना चाहिये अर्थात्वैशेषिकों ने द्रव्य, गुण, कर्म सामान्य, विशेष, समवाय, यों छह भाव पदार्थ स्वीकार किये हैं, पृथिवी, जल, तेज, वायु और मन इन पांच प्रपकृष्ट-- परिमाण वाले मूर्तं द्रव्योंको छोड़ करके अवशेष चास व्यापक द्रव्य तथा गुरण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और प्रभाव भी अमूर्त पदार्थ माने गये हैं । वैशेषिकों के छह पदार्थों की परीक्षा के अवसर पर उनको बहत कुछ शोधा गया है । द्रव्य, गुण और कर्मों की अच्छी विवेचना की गयी है, निन्य एक और अनेक में रहने वाला ऐसा कोई सामान्य पदार्थ नहीं है, हां सदृश परिणाम या पूर्वापर विवर्तों में व्यापने वाला परिणाम ही सामान्य ( जाति ) है, तिर्यक् और ऊर्ध्वता उसके भेद हैं । तथा अन्त में होने वाला और नित्य द्रव्य में वर्त रहा विशेष पदार्थ प्रमाणों से सिद्ध नहीं है, हां विलक्षण परिणाम स्वरूप विशेष पदार्थ समुचित है, पर्याय और व्यतिरेक जिसके भेद हो सकते हैं । समवाय भी अयुत - सिद्धों का सम्बन्ध होरहा नित्य संसर्ग नहीं है किन्तु कथंचित् तादात्म्य स्वरूप ही समवाय है । जैन सिद्धान्त अनुसार छहों द्रव्यों में सामान्य, विशेष, समवाय विद्यमान हैं । हां परिस्पन्द रूप क्रियायें तो जीव और पुद्गल दो द्रव्यों में ही हैं। प्रकरण में यह कहना है कि मूर्त द्रव्यों के गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय तो मूर्त हैं क्योंकि मूर्त द्रव्य से कथंचित प्रभिन्न हो रहे वे मूर्त ही तो कहे जांयगे, हां इन गुरण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवायों में पुन: दूसरे गुरण, कर्म, सामान्य, प्रादिक नहीं रहते हैं और रूप आदि संस्थान - परिणाम भी नहीं है अतः ये अमूर्त भी हैं अमूर्त द्रव्यों के गुरण या पर्यायें सब अमूर्त ही हैं ऊर्ध्वगमन काल में मुक्त जीवों की क्रिया भी अत ही है, अतः जिन वैशेशिकों के यहां उन गुरण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवायों का प्रमूं तपना ही खाना गया है इस कथन से उस अर्मूतपन के एकान्त का भी खण्डन हो चुका समझ लेना चाहिये । तिस कारण जो वैशेषिकोंने यह कहा था कि गुण, कर्म, साभान्य, विशेष, समवाय ये पांच पदार्थ अमूर्त ही हैं, इस प्रकार उनका वह कथन प्रयुक्त है क्योंकि प्रतीतियों से विरोध आता है। देवदत्त के पुत्र का शरीर जैसे देवदत्त का लड़का है उसी प्रकार उस शरीर के हाथ पांव मस्तक, पेट, को भी देवदत्त का लड़कापन प्राप्त है, मिश्री मीठी है उसका मीठा रस भी मीठा है, हां मीठे रस में पुनः दूसरा मीठा रस नहीं घोल दिया गया है अतः उसको भले ही रसान्तर से रहित कह दिया जाय एतावता मिश्री का रस एकान्त रूप से नीरस नहीं है । श्रात्मा ज्ञानवान् है उसका ज्ञान भी ज्ञानवान् है, जिनदत्त की आत्मा पण्डित है साथ में जिनदत्त का शरीर उस शरीर का हाथ, पांव, पेट, मुख, अवयव भी पण्डित है, असद्भूत व्यवहार नय से तो पण्डित की पगड़ी या दुपट्टा भी पण्डित है तभी तो उन की पगड़ी का विनय करते हैं । द्रव्यनिक्षेप के भेदों का विचार कीजिये । अतः प्रतीति के अनुसार वस्तु की व्यवस्था स्वीकार कर लेनी चाहिये - कुत्सित आग्रह करने का परिपाक अच्छा नहीं हैं । अथोत्सर्गतः पुद्गलानामध्यरूपित्वप्रसक्तौ तदपवादार्थमिदमाह ।
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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