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________________ पंचम श्रध्याय ३१ हम यदि यहां वैशेषिक यों कहैं कि 'हमारे यहाँ और स्याद्वादियों के यहां भी रूप में पुनः रूप, रस आदि गुरण नहीं माने गये हैं, रस में रूपरसादि गुण निर्गुण हुआ करते हैं, ऐसी दशा में पूछते हैं कि मूर्तिवाले पुद्गल द्रव्य की पर्याय होरहे रूप प्रादिकों के अमूर्तपन की सिद्धि भला किस प्रकार करोगे? अभी तक के दा अनुमानों से तो रूप आदि गुण या काली, नीली, खट्टी, मीठी आदि पर्यायों के अमूर्तपन की सिद्धि नहीं होपायी है, दानों हेतु रूप आदि सहभावो पर्यायों या क्रमभावी पर्यायों में नहीं वर्तते हैं' यों वैशोषिक के कहने पर तो ग्रन्थकार कहते हैं कि किसी भी प्रकारसे उन रूपादिकों के मूर्तिपन की सिद्धि नहीं है क्योंकि वे स्वयं मूर्तिमान् पदार्थ हैं पुद्गल जैसे स्वयं मूर्तिमान हैं पुद्गल से कथंचित् प्रभिन्न होरहे रूप आदि पर्याय भी उसी प्रकार मूर्त हैं, हां प्रकरणप्राप्त उन रूप आदिकों में दूसरे प्रकृत रूपादि संस्थान स्वरूप मूर्ति के नहीं होने से उन रूप प्रादिकों के अमूर्तपना तो पना हेतु से ही सिद्ध होजाता है क्योंकि " द्रव्याश्रया निर्गुणाः गुणा: " गुणों के गुणरहितपन की सिद्धि प्रसिद्ध है । भावार्थ - घटो घटः ? यहां नत्र का अर्थं यदि अन्योन्याभाव है तब तो यह प्रयोग अशुद्ध है जब कि घट घटस्वरूप है तो वह तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिता वाले घट--भेद से युक्त कथमपि नहीं हो सकता है "घटो घटः " यह समाचीन ज्ञान " अवटो वटः " इस बुद्धि को नहीं होने देता हां यदि "घटो घटः " में नत्र का अर्थ प्रत्यन्ताभाव है तव तो यह प्रयोग ठीक है, संयोग सम्वन्ध से घटवान होरहा भूमाग घट नहीं होसकता है किन्तु घट के ऊपर या भीतर कोई दूसरा घट संयोग सम्बन्ध से नहीं धरा हुआ है अतः दूसरे घटसे रहित होरहा यह घट घट । इसी प्रकार रूप प्रादिक स्वयं मूर्त हैं, हां रूप आदि में दूसरे मूर्ति पदार्थों के नहीं वर्तने से वे रूप आदि गुण अमूर्त सध जाते हैं । श्रात्मा ज्ञानवान् है, ज्ञान ज्ञानवान् नहीं है । इसीप्रकार मूर्त द्रव्यों को पर्यायों में अमृतपना गुण -- पर्यायत्व हेतु से साध लिया जाय । यहां बात यह है कि पुद्गल द्रव्य गुरणवान् होते हुये मूर्त हैं, पुद्गल के गुण या उनकी पर्यायें मूर्त नहीं हैं | ग्वालिया गोमान् है गायें दूधवाली हैं, कन्तु दूध स्वयं गोमान् या दुग्धवान् नहीं है, दण्डी पुरुष डंडे वाला है, स्वयं दंड तो डंडे वाला नहीं है, कथंचित् तादात्म्य मानने पर पुद्गल द्रव्य के गुण या पर्यायें भी मूर्त होजाते हैं, पुद्गल की स्कन्ध या अरणुयें ये पर्यायें तो मूर्त हैं ही । मूर्त द्रव्य के साथ बंध जाने पर संसारी जीव को भी मूर्त कह दिया जाता है, शेष चारद्रव्य और उनके गुण या पर्यायें अमूर्त ही हैं यहां भी स्याद्वाद सिद्धान्त अनुसार कथंचित् मूर्तपना लगाना तो अज्ञों को चेष्टा करना है, सर्वत्र विना विचारे 'स्यात्' को लगाने वाला पुरुष अपना उपहास कराता है । एतेन सामान्यविशेषसमवायानां सदृशेवर परिणामाविषग्भावलक्षणानां मूर्तिमद्रव्याश्रयाणां कर्मणां च मूर्तत्वममूर्तित्वं चिंतित बोद्धव्यं । तेषाममूर्तित्वमेवेत्यपि प्रत्याsarda दुक्तं गुणकर्मसामान्यविशेषसमवाया अमृतय एवेति तदयुक्त, प्रतीतिविरोधात् । इस उक्त कथन करके इस बात का भी विचार किया जा चुका समझ लेना चाहिये कि सहपरिणाम स्वरूप सामान्य पदार्थ ( जाति ) और विसदृश परिणाम स्वरूप विशेष पदार्थं तथा प्रविष्वग्भाव यानी पृथग्भाव ( कथंचित् तादात्म्य ) स्वरूप समवाय पदार्थ का भी मूर्तपन और अमूर्तपन है एवं मूर्तिमान् पुद्गल या संसारो जाव द्रभ्यां के आश्रित हो रहे गमन, भ्रमरण, आदि
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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