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________________ श्लोक-वातिक अथ स्पर्शादिसंस्थानपरिणामो मूर्तिस्तद्भावानामत यो धर्मादय इति साध्यं तदानुमानवाधितः पक्षः कालात्ययापदिष्टश्च हेतुः । तथाहि--धर्मादयो न मूर्तिमन्तः पुद्गलादन्यत्वे सति द्रव्यत्वादाकाशवदित्यनुमानं विवादाध्यासितद्रव्याणाममर्तिम् साघयत्येव । सुखादिपर्यायेष्वभावाद्भागासिद्धत्वं हेतोरिति चेन्न, तेषामपक्षीकृतत्वात् । अब तुम वैशेषिक यदि स्पर्श ग्रादि रचना--प्रात्मक परिणाम को मूर्ति मानोगे और उस मूर्ति का सद्भाव होने से धर्म आदिक द्रव्य अमुर्तिमान् नहीं हैं. यह साधा जायगा तब तो तुम्हारा पक्ष अनुमान प्रमाण से बाधित होजायगा और हेतु कालात्ययापदिष्ट यानी वाधित हेत्वाभास बन जायगा धर्म आदिक में स्पर्श ग्रादि के सद्भाव का प्रभाव है यानी स्पर्श आदिक नहीं हैं 'पक्ष साध्याभावो वाध:' है, उसी बात को ग्रन्थकार स्पष्ट कर दिखलाते हैं कि धर्म आदिक द्रव्य पक्ष) मूर्ति वाले नहीं हैं (साध्य) पुद्गल से भिन्न होते हुये द्रव्य होने से ( हेतु ) प्राकाश के समान (दृष्टान्त यह निर्दोष अनुमान विवाद में अधिरूढ होरहे धर्म आदि द्रव्यों के अर्मूतपन को साध ही देता है, अत: इस निर्दोष अनुमान से वैशेषिकों का ( या आर्यसमाजियों का ) पक्ष वाधित होजाता है, यदि जैनों के ऊपर वैशेषिक यों दोष उठावें कि सुख, इच्छा आदि पर्यायों में तुम्हारा पुद्गल से भिन्नपन होते हुये द्रव्यपना हेतु विद्यमान नहीं है, अतः हेतु भागासिद्ध हेत्वाभास है, पक्ष के एक देश में नहीं रहने वाला हेतु भागासिद्ध हेत्वा. भास कहा जाता है । ग्रन्थकार क. ते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि उन सुखादि पर्यायों को पक्ष नहीं किया गया है, पांच द्रव्योंको ही पक्ष कोटिमें डाला गया है, अतः भागासिद्ध दोष नहीं पाता हैं । कुतस्तेषाममूर्तित्वसिद्धिः ? सा बनान्तरादित्यभिधीयते । सुखादयोप्यमूर्तद्रव्यपर्यायाः न मूर्तिमन्तः अमूर्तद्रव्यपयित्वादाकाशपर्यायवत् । मर्तिमद्र्व्यपर्यायाणां रूपादीनां कथममूर्तित्वसिद्धिरिति चेन्न कथमपि तेषां स्वयं मूर्तिमसात् । मृत्यंतराभावात् तेषाममूर्तिन्वं गुणादेर सिद्धयति गुणानां निगुणत्वसाधनात् । यहां यदि कोई यों पूछे कि फिर उन सुख, ज्ञान, उत्साह, आदि पर्यायों का अमूर्तपना भला किससे साधा जायगा ? इस पर हमारा यह कहना है कि अन्य साधनों से सुखादिकों के अमूर्तपन की सिद्धि कर ली जाती है जैसे कि गूढ़ अंगार की अग्निको धूम से अतिरिक्त किसी अन्य हेतु से साध लिया जाता है सर्वत्र उस साध्य को साधने के लिये एक ही हेतु का ठेका नहीं है, दूसरे दूसरे हेतुओं द्वारा अन्य अनुमान उठा लिये जाते हैं। यहां सुखादिकों में यह अमूर्तपना यों साध लिया जाता हैकि अमूर्त द्रव्यों के पर्याय होरहे सुख प्रादिक भी ( पक्ष ) मूर्तिवाले नहीं हैं ( साध्य ), रूप आदि संस्थान परिणतियों से रहित होरहे अमूर्त द्रव्यों के पर्याय होने से ( हेतु ), आकाश द्रव्य की पर्याय के समान ( अन्वय दृष्टान्त ) । इस दूसरे अनुमान द्वारा सुख आदि पर्यायोंके अमूर्तपन को साध दिया जाता है।
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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