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श्लोक- वार्तिक
यहाँ कोई शंका करता है कि जीव के परिणाम हो रहे इन संरम्भ आदिकों को यदि आस्रव या उनका कारण आदि होना माना जायेगा तब तो जीव के आस्रव आदि होने का उनको व्याघात प्राप्त होगा । अर्थात् — जीव के परिणामों के जो आस्रव हैं वे जीव के आस्रव नहीं कहे जा सकते हैं। आचार्य कहते हैं कि यह नहीं समझ बैठना क्योंकि सभी प्रकारों से उन जीव विवर्तों के उनको भेद नहीं कह दिया है वे जीव के भी भेद हो सकते हैं देखिये नील गुण का अधिकरण केवल नील द्रव्य ही नहीं है। जो कि दुकानों पर दस रुपया सेर बिकता है यदि नील द्रव्य में ही नील गुण रहता तो उस नील रंग के डेल (लील) में ही नीलज्ञान के होने का प्रसंग होता अन्यत्र नील का ज्ञान नहीं होसकता था किन्तु नील से रंगे हुये वस्त्र में भी “यह नील है" ऐसा ज्ञान होता है तिस कारण " कपड़ा नील” ऐसी समीचीन प्रतीति होजाने के कारण कपड़े को भी तो उस नील का अधिरणपना सिद्ध है नीलगुण वाले नीलद्रव्य का पीछे रंग देना हो जाने से उस पट के भी नील द्रव्यपन का परिणाम हो जाता है अतः पट में उस नीलपन के परिणाम की उपपत्ति हो गई है कारण कि नील और नीलवान् में कथंचित् अभेद सम्बन्ध की सिद्धि की जा चुकी है।
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सर्वथा तद्भेदेऽपि पटे संयुक्तनीली समवायान्नीलगुणस्य नीलः पट इति प्रत्ययो घटत एवेति चेन्न, आत्माकाशादिष्वपि प्रसंगात् । तैनलद्रव्यसंयोगविशेषाभावान्न तत्प्रसंग इति चेत्, स को न्यो विशेषः संयोगस्य तथा परिणामात् । तथाहि परिणामित्वं हि तंतुषु तत्संयुक्त मन्यत्रोपचारात् । न च नीलः पट इत्युपचरितः प्रत्ययोऽस्खलद्रूपत्वाच्छुक्लः पट इति प्रत्ययवत् तद्बाधकाभावाविशेषात् । तत्सूक्तं यथा नील्या नीलगुणः पटे नील इति च तस्य तदधिकरणभावस्तथा संरंभादिष्वास्रवो जीवेष्वास्रव इति वास्रवस्य तेऽधिकरणं जीवपरिणामानां जीवग्रहणेन ग्रहणादधिकरणं जीवा इत्युपपत्तेः अन्यथा तत्परिणामाग्रहणप्रसंगादिति ।
यहाँ गुण और गुण के भेद को मान रहा वैशेषिक आक्षेप करता है कि उन नील और नीलवान का सर्वथा भेद मानने पर भी नील रंग से घुले हुये पानी में डोब दिये गये वस्त्र में संयुक्त हो गये नीली द्रव्य में नील गुण का समवाय होरहा है अतः कपड़ा नीला ही है यह प्रत्यय संयुक्त समवाय सम्बन्ध से सुघटित हो जाता ही है नील गुण नील में रहा और वस्त्र में नील संयुक्त होरहा है। आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि यों तो आत्मा, आकाश आदि में भी नीलपने के ज्ञान हो जाने का प्रसंग आजावेगा नील द्रव्य उन आकाश आदि के साथ संयुक्त होरहा है अतः संयुक्त समवाय सम्बन्ध से वस्त्र के समान आत्मा आदिक भी नीले हो जायेंगे जो कि इष्ट नहीं हैं। यदि वैशेषिक यों कहें कि उन आत्मा, आकाश, आदि के साथ नील द्रव्य का विशेषजाति का संयोग नहीं है केवल प्राप्ति हो जाना मात्र सामान्य संयोग है पट के साथ नील द्रव्य का विशेष संयोग है जो कि हर्र, फिटकिरी, पानी और पट की स्वच्छता आकर्षकता आदि कारणों से विशेष जाति का होजाता है अतः आत्मा नील है। यह प्रसंग नहीं आने पाता है यों काणादों के कहने पर तो हम जैन कहेंगे कि वह संयोग की विशेषता भला तिस प्रकार परिणमन हो जाने के अतिरिक्त दूसरी क्या हो सकती है ? अर्थात् पट की नील स्वरूप परिणति है और आत्मा या आकाश की नील परिणति नहीं है । इसी को स्पष्ट कर और भी यों कह दिया जाता है कि कपड़े के तन्तु-तन्तुओं में वह नीली द्रव्य उपचार के सिवाय मुख्य रूप से संयुक्त हो