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________________ छठा अध्याय ४७५ तथैवानृतादिष्ववतेषु योज्यं । एवं कषायस्थानभेदानां सर्वेषां परमागमे संग्रहः कृतो भवति । तदप्यष्टोत्तरशतं प्रत्येकमसंख्येयैः कषायस्थानैः प्रतिभिद्यमानसंख्येयमिति जीवाधिकरणं व्याख्यातं । जिस प्रकार हिंसा अनुकूल आस्रव में एक सौ आठ भेद लगा दिये हैं तिस ही प्रकार झूठ, चोरी, आदि अव्रतों में भी जोड़ लेना चाहिये । इस ही प्रकार कषायाध्यवसाय स्थान के सम्पूर्ण भेदों का परमागम में संग्रह कर लिया गया समझा जाता है। वे एकसौ आठों भेद भी प्रत्येक के असंख्याते कषाय स्थानों करके विशेषतया भेद को प्राप्त होरहे सन्ते असंख्यात लोक प्रमाण हो जाते हैं इस प्रकार जीवा - धिकरणका विस्तार से व्याख्यान कर दिया है । अर्थात् जगत् के अनन्तानन्त कार्य स्वतंत्रतया पुद्गलों करके भी सम्पादित होते हैं किन्तु वैशेषिक जिन कार्यों का ईश्वर करके किया जाना मान बैठे हैं सम्पूर्ण कार्य असंख्यात या अनन्तानन्त आस्रवों के धारी जीवों करके बुद्धिपूर्वक या अबुद्धि पूर्वक बना लिये जाते हैं छऊ द्रव्यों में अनन्त सामर्थ्य विद्यमान है । सूर्य, चन्द्रमा, को नीचे भूमि पर उतार लेना, घोड़े के सींग उपजा देना, जड़ में ज्ञान धर देना आदि असम्भव कार्यों को न तो ईश्वर ही कर सकता है और न कोई जीवात्मा ही या पुद्गल कर सकता है ईश्वर को सर्वशक्तिमान् कहना अलीक है अनन्त शक्तिमान् सभी द्रव्य हैं असंख्याती कषाय जातियों अनुसार हुये कर्मों के आस्रवों करके यह संसारी जीव चित्र विचित्र कार्यों का सम्पादन कर देता है इसमें आश्चर्य ही क्या है ? जीव एव हि तथा परिणाम विशेषकर्मणामास्रवतां तत्कारणानां च हिंसादिपरिणामानामधिकरणतां प्रतिपद्यते न पुनः पुद्गलादिस्तस्य तथापरिणामाभावात् । संरंभादीनां वा क्रोधाद्याविष्टपुरुषकर्तृकाणां तदनुरंजनादधिकरणाभावो नीलपटादिवत् । कारण कि यह संसारी जीव ही तिस प्रकार परिणाम विशेषों करके आगमन कर रहे कर्मों का ..और उन कर्मों के कारण हो रहे हिंसा, झूठ, क्रोध, इन्द्रियलोलुपता आदि परिणामों के अधिकरणपन को को प्राप्त हो रहा है किन्तु फिर पुद्गल द्रव्य, काल द्रव्य आदि तो उन आस्रवित कर्मों के और उनके कारण हिंसा आदि परिणामों के अधिकरण नहीं हैं क्योंकि उन पुद्गल आदिकों के तिस प्रकार आस्रव के अनुकूल परिणाम हो जाने का अभाव है। बात यह है कि क्रोध, असत्यभाषण, आदिक से आलीढ होरहे स्वतंत्र कर्ता जीवों करके किये गये संरम्भ आदि आस्रवों का उस आत्मा के साथ अनुरंजन हो जाने से जीवों के अधिकरणपना बन जाता है जैसे कि नीलपट, लवणमिश्रितव्यंजन आदि हैं अर्थात्-नील रंग से रंजित कर देने पर जैसे पट नीला हो जाता है आकाश नीला नहीं होता है नोंन का अनुराग हो जाने से दाल या साग तो नोंन का अधिकरण हो जाते हैं कसेंड़ी, थाली नहीं । तिसी प्रकर संरंभ या क्रोध आदि का अनुरंजन जीव में हो रहा है। चैषां जीवविवर्तानामात्रवादिभावे जीवस्य तद्व्याघातः सर्वथा तेषां तद्भेदाभावात् । नहि नीलगुणस्य नीलिद्रव्यमेवाधिकरणं तत्रैव नीलप्रत्यय प्रसंगात् । नीलः पट इति संप्रत्ययात्तु पदस्यापि तदधिकरणभावः सिद्धस्तस्य नीलिद्रव्यानुरंजनान्नीलद्द्रव्यत्वपरिणामात्तद्भावोपपत्तेः कथंचिदभेदसिद्धेः ।
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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