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श्लोक-वार्तिक
पूर्वसूत्र करके जीवाधिकरण और अजीवाधिकरण आस्रव बहुत अच्छा कहा जा चुका है उन में आदि का जीवाधिकरण तो बखाने गये तीन संरंभ आदि विशेषों करके एक-एक प्रति तीन योग विशेषों से भिन्न हो रहा सन्ता नौ प्रकार भिन्न हो जाता है । वह नौ प्रकार का पुनः कृत आदि विशेषों करके भिन्न हो रहा सन्ता सत्ताईस संख्या वाला हो कर भिन्न हो जाता है । पुनः यही सत्ताईस संख्या वाला आस्रव स्वयं अपने चार प्रकार के भेदों को प्राप्त हो रही कषायों करके आठ ऊपर सौ यानी एक सौ आठ प्रकार हो
भेद को प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार कषाय स्थानों के सम्पूर्ण भेदों का सर्वज्ञ प्रतिपादित परमोत्कृष्ट जिनागम में संग्रह कर लिया गया है । अर्थात्-क्रोध, मान, माया, लोभ, चार कषायों के भी अनन्तानुबन्धी आदि चार चार भेदों से अथवा असंख्यात लोक प्रमाण कषाय जातियों से गुणा करने पर हुये असंख्यात भेदों का इन्हीं सौ आठ में संग्रह कर लिया जाता है ऐसा प्ररूपण जैन सिद्धान्त में सर्वज्ञ आम्नाय प्राप्त चला आ रहा है।
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वाधिकरणं संरंभादिभिस्त्रिभिर्भिद्यमानं हिंसास्रवस्य तावत् त्रिविधं । हिंसायां संरंभः समारंभः आरंभश्चेति । तदेव योगैस्त्रिभिः प्रत्येकं भिद्यमानं नवधावधार्यते कायेन संरंभो वाचा संरंभो मनसा संरंभ इति, तथा समारंभस्तथा चारंभ इति । तदेव नवभेदं कृतादिभिर्भिन्नं सप्तविंशतिसंख्यं कायेन कृतकारितानुमताः संरंभसामारंभारंभाः, तथा वाचा मनसा चेति । पुनश्चैतत्सप्तविंशतिभेदं कषायैः क्रोधादिभिश्चतुर्भिर्भिद्यमानात्मकं भवेदष्टोत्तरशतं क्रोधमानमायालो भैः कृतकारितानुमताः कायवाङ्मनसा संरंभसमारंभारंभा इति ।
हिंसा अवलम्ब आस्रव के संरंभ आदिक तीनों करके भेद को प्राप्त हो रहा सन्ता जीवाधिकरण तो तीन प्रकार का है जो कि हिंसा करने में प्रयत्नावेश स्वरूप संरम्भ करना और साधनों का एकत्रीकरण रूप समारम्भ करना तथा हिंसा में आद्य प्रक्रम स्वरूप आरम्भ करना यों तीन प्रकार है। वही तीनों प्रकार का जीवाधिकरण तीन योगों करके प्रत्येक भेद को प्राप्त हो रहा सन्ता नौ प्रकार का यों निर्णीत कर लिया जाता है' १ काय करके संरम्भ होना २ वचन करके संरम्भ होना ३ मन करके संरम्भ होना यों तीन संरम्भ हुये तिसीप्रकार ४ काय करके समारम्भ ५ वचन करके समारम्भ ६ मन करके समारम्भ यों तीन समारम्भ हुये तिस ही ढंग से ७ काय करके आरम्भ ८ वचन करके आरम्भ ९ मन करके आरम्भ यों तीन आरम्भ हुये सब मिला कर नौ हुये, उन नौऊ भेदों को कृत आदिक के साथ भिन्नभिन्न कर दिया जाय तो कृत के साथ नौ और कारित के साथ नौ एवं अनुमत के साथ नौ यों सत्ताईस • संख्या वाला जीवाधिकरण आस्रव हुआ । अकेली काय के साथ कृत, कारित, अनुमोदन और संरम्भ, समा रम्भ, आरम्भ की गणना कर देने से नौ भेद हुये तिसी प्रकार वचन और मन से भी गणना अभ्यावृत्ति कर देने पर सत्ताईस भेद हो जाते हैं फिर भी इन सत्ताईस भेदों को क्रोधादि चार कषायों के साथ प्रत्येक भेद को प्राप्त हो रहे स्वरूप एक सौ आठ भेद हो जायंगे । क्रोध, मान, माया, लोभों करके कृत, कारित, अनुमोदना होती हुईं काय, वचन, मनों द्वारा संरम्भ, समारम्भ, आरम्भ स्वरूप जीवाधिकरण आव हैं। इनका प्रस्तार पूर्वक परिवर्तन यों किया जा सकता है कि प्रथम ही सबसे पहिलों के साथ क्रोधादि चार कषायों को भुगता दिया जाय पुनः कृत को छोड़ कर कारित पर आजाना चाहिये पश्चात् अनुमोदना पर संक्रमण कर लिया जाय ये बारह काय योग पर हुये इसी प्रकार बारह वचन योग पर और बारह मनोयोग पर लगा कर छत्तीस भेद समारम्भ के हो जाते हैं । इसी प्रकार छत्तीस भेद समारम्भ और छत्तीस भेद आरम्भ के करते हुये सब एक सौ आठ भेद होजाते हैं ।
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