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________________ छठा अध्याय ४७३ में घब् प्रत्यय करके समारम्भ को साध लिया जाता है । आरम्भ मात्र क्रिया कर देना आरम्भ है। आङ पूर्वक रभ धातु से भाव में घञ् प्रत्यय कर आरम्भ शब्द का साधन कर लिया जाता है। यों संरम्भ आदि शब्द शुद्ध धात्वर्थ मात्र को कह रहे भाव साधन हैं। "कायवाङ्मनःकर्म योगः” इस सूत्र में योग शब्द का अर्थ यों बखाना जा चुका है कि काय, वचन, मनों के अवलम्ब से आत्मप्रदेशों का परिस्पन्द होना योग है। इस सूत्र में पड़े हुये कृत शब्द का निरूपण तो कर्त्ता की स्वतंत्रता की प्रतिपत्ति कराने के लिये है अर्थात्-आत्मा ने स्वतंत्र होकर उस कार्य को स्वयं किया है और कारित शब्द का कथन दूसरों के प्रयोग की अपेक्षा कर कार्यसिद्धि कराने के लिये है अनुमत शब्द तो प्रयोक्ता के मानसिक व्यापारों का प्रदर्शन कराने के लिये है कहीं कहीं मौन व्रती पुरुष के समान उस अनुमोदक को वचन बोलने का प्रयोजकपना असम्भव है। कार्य द्वारा व्यापार करने में प्रयोक्ता नहीं होने से इसके मानसिक व्यापारों की सिद्धि हो जाती है। अर्थात-जैसे चप होकर आंखों से देख रहा पुरुष उस कार्य का निषेध नहीं करने से अपने मन में उसकी अनुमोदना करता रहता है यह शरीर का कोई व्यापार नहीं करता है वचन भी नहीं बोलता है केवल मन में अभ्यन्तर परिणामों द्वारा उस कार्य के होने देने में अनुमोदन करता रहता है ये तीन त्रिक हुये। कत्यात्मानमिति कषायाः प्रोक्तलक्षणाः । विशेषशब्दस्य प्रत्येक परिसमाप्ति(जिवत्, तेन संरंभादिविशेषैर्योगविशेषैः कृतादिविशेषैः कषायविशेषैरेकशः प्रथममधिकरणं भिद्यत इति सूत्रार्थों व्यवतिष्ठते । एतदेवाह । चौथा चतुष्क इस प्रकार है कि आत्मा जो कषते रहते हैं यानी आत्मा के स्वाभाविक परिणामों की हिंसा करते रहते हैं इस कारण वे कषाय हैं। कषायों का लक्षण दूसरे अध्याय में बहुत अच्छा कहा जा चुका है। "द्वंद्वादौ द्वंद्वान्ते च श्रूयमाणं पदं प्रत्येकमभिसंबध्यते" इस नियम अनुसार यहां द्वन्द्व के अन्त में पड़े हुये विशेष शब्द की प्रत्येक पूर्व पद में परिसमाप्ति कर देनी चाहिये जैसे कि देवदत्त, जिनदत्त, गुरुदत्त को भोजन करा दो यहां भोजन क्रिया का उक्त तीनों व्यक्तियों में परिपूर्ण रूप से अन्वय हो जाता अर्थात्-प्रत्येक को भर पेट भोजन कराया जाता है ऐसा नहीं है कि एक के पेट भरने योग्य भोजन को ही तीनों में तिहाई तिहाई बांट दिया जाय, तिस कारण संरम्भ आदि विशेषों करके और योग विशेषों करके तथा कृत आदि विशेषों करके एवं कषायविशेषों करके एक एक प्रति तीन आदि भेदों घटित करते हुये पहिले जीवाधिकरण आस्रव को भिन्न भिन्न कर लिया जाता है. इस प्रकार सूत्र का अर्थ व्यवस्थित हो जाता है। इस बात को ही ग्रन्थकार अग्रिमवार्तिकों द्वारा स्पष्ट कह रहे हैं उसको सावधान होकर सुनिये । जीवाजीवाधिकरणं प्रोक्तमाद्यहि भिद्यते । संरंभादिभिराख्यातैर्विशेषैस्त्रिभिरेकशः ॥१॥ योगैस्तन्नवधा भिन्नं सप्तविंशतिसंख्यकं । कृतादिभिः पुनश्चैतदभवेदष्टोत्तरं शतं ॥२॥ कषायैर्भिद्यमानात्मचतुर्भिरिति संग्रहः। कषायस्थानभेदानां सर्वेषां परमागमे ॥३॥
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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