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________________ ४७२ श्लोक-वार्तिक आठ भेद हो जाते हैं। गोम्मटसार जीवकाण्ड में प्रमाद के प्रकरण में कहे गये संख्या, प्रस्तार, परिवर्तन, नष्ट, और समुद्दिष्ट यहाँ भी लगाये जा सकते हैं । ___ आद्यग्रहणमनर्थकमुत्तरसूत्रे परवचनसामर्थ्यात्सिद्धेरिति चेन्न, विस्पष्टार्थत्वात्तस्य । तदग्रहणे हि प्रतिपत्तिगौरवप्रसंगः। परवचनसामर्थ्यादनुमानात्संप्रत्ययात्परशब्दस्येष्टवाचिनोऽपि भावात्तद्वचनादाद्यसंप्रत्ययाऽसिद्धेः सूक्तमिह ग्रहणं । ___ यहाँ कोई शंका करता है कि सूत्र में आद्य शब्द का ग्रहण करना व्यर्थ है क्योंकि आगे कहे जाने वाले उत्तरवर्ती “निवर्तनानिक्षेप” आदि सूत्र में पर शब्द के कहने की सामर्थ्य से ही अर्थापत्त्या यहाँ आद्य शब्द का अर्थ सिद्ध हो जाता है। आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि विशेषरूपेण स्पष्ट करने के लिये इस सूत्र में आद्य पद का ग्रहण किया गया है। यदि उस आद्य पद का ग्रहण नहीं करते तो कठिनता से प्रतिपत्ति होती अतः अर्थकृत गौरव हो जाने का प्रसंग आजावेगा जो कि इष्ट नहीं है। देखिये उत्तर सूत्र में परवचन की सामर्थ्य से यहाँ अनुमान प्रमाण से ही आद्य शब्द के प्रथम अर्थ की समीचीन प्रतीति हो सकती थी, यहाँ विचारिये कि अनुमान प्रमाण की उत्पत्ति में हेतु का उपलम्भ, व्याप्तिग्रहण, व्याप्तिस्मरण, पक्षवृत्तित्वज्ञान, निगमन यों अनेक ज्ञान उपजाने पड़ते तब कहीं विना कहे ही आद्य का अर्थ अर्थापत्त्या सिद्ध होता और अनेक स्थूल बुद्धि वाले शिष्य तो उस अर्थ की प्रतिपत्ति ही नहीं कर पाते अतः परानुग्रह में प्रवर्त रहे सूत्रकार महाराज स्पष्ट प्रतिपत्ति कराने के लिये आद्य शब्द का कण्ठोक्त प्रतिपादन कर देते हैं । एक बात यह भी है कि अगिले सूत्र में इष्ट अर्थ को कहने वाले भी पर शब्द का सद्भाव है अतः उस पर शब्द के कहने से आद्य शब्द के अर्थ की समीचीन प्रतिपत्ति नहीं हो सकती है इस कारण यहाँ सूत्र में श्री उमास्वामी महाराज ने आद्य शब्द का ग्रहण बहुत अच्छा कर दिया है। प्रमादवतः प्रयत्नावेशः प्राणव्यपरोपणादिषु संरंभः, क्रियायाः साधनानां समभ्यासीकरणं समारम्भः, प्रथमप्रवृत्तिरारंभश्चादय आयकर्मणि द्योतनत्वात् । संरंभणं संरंभः, समारंभणं समारंभः, आरंभणमारंभ इति भावसाधनाः संरंभादयो, योगशब्दो व्याख्यातार्थः कायवाङ्मनःकर्म योग इति । कृतवचनं कतु: स्वातंत्र्यप्रतिपत्यर्थ, कारिताभिधानं परप्रयोगापेक्षं, अनुमतशब्दः प्रयोक्तनिसव्यापारप्रदर्शनार्थः, कचिन्मौनव्रतिकवत्तस्य वचनप्रयोजकत्वासंभवात् कायव्यापारेऽप्रयोक्तत्वान्मानसव्यापारसिद्धः। प्रमाद वाले जीव का स्वपर के प्राणवियोग आदि में जो प्रयत्न का आवेश (उत्साह विशेष) होना है वह संरम्भ है । साध्यभूत क्रिया के साधनों का भले प्रकार अभ्यास करना यानी अनभ्यस्त को जो अभ्यस्त करना है वह समारम्भ है । शुभ अशुभ क्रियाओं के करने में प्रथम प्रवृत्ति करना आरम्भ है। च, आङ, प्र, आदिक उपसर्ग आदि में होने वाली क्रिया के द्योतक हो जाते हैं “निपाता द्योतका भवन्ति" आरम्भ शब्द में पड़ा हुआ आङ् निपात आद्य कर्म का द्योतक है। संरम्भण क्रिया मात्र संरम्भ है सम् उपसर्ग पूर्वक रभ धातु से या रभि धातु से भाव में घञ् प्रत्यय कर संरम्भ शब्द बना लिया जाता है। इसी प्रकार समारम्भ मात्र क्रिया करना समारम्भ है यहां भी सम्, आङ् , उपसर्ग पूर्वक रभि धातु से भाव
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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