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छठा-अध्याय
रहा है आत्मा आदि में नील द्रव्य उपचार से संयुक्त है किन्तु पट में संयुक्त होकर वह बंध गया है पट नीला है यह ज्ञान उपचरित ( गौण ) नहीं है क्योंकि यह प्रतीति स्खलित नहीं होती है जैसे कि धौला पट है इस प्रतीति को स्खलित नहीं होने के कारण अनुपचरित माना जा बाधक प्रमाणों का अभाव जैसे धौला कपड़ा इस प्रतीति में है वैसा ही नीला कपड़ा इस प्रतीति में भी है कोई अन्तर नहीं है। अर्थात्-वैशेषिकोंने नील रंग से रंगे हुये कपड़े में नील को उपचरित माना है नील कमल में या नील मणि में जैसे नील रूप का समवाय है वैसा रंगे हुये नील वस्त्र में नहीं है "सिंहो माणवकः" "गौर्वाहीकः" "अन्नं वै प्राणाः” के समान "नीलः पटः" भी उपचरित है किन्तु आचार्य समझाते हैं कि संयोग होजाने पर पुनः बंध परिणति अनुसार पट में भी नील का समवाय होजाता है किन्तु आत्मा के साथ नील द्रव्य की बंध परिणति नहीं होपाती है तिस कारण यह सिद्धान्त बहुत अच्छा कहा जा चुका है कि जिस प्रकार नील -द्रव्य का नील गुण उस पट में भी नील बुद्धि को करता हुआ नीला बना देता है इस कारण उस पट को उस नील का अधिकरणपना प्राप्त है तिसी प्रकार संरम्भ आदिकों में जो आस्रव होरहा है वह जीवों में ही आस्रव है इस कारण जीव के परिणाम वे संरम्भ आदिक ही आस्रव के अधिकरण है यों कहने पर भी वे जीव आस्रव के अधिकरण हो जाते हैं "अधिकरणं जीवाजीवाः” इस सूत्र में जीव पद का ग्रहण करने से जीव के परिणामों का ग्रहण हो जाता है जीव और जीव परिणामों में कथंचित् अभेद है अतः जीव भी आस्रवों के अधिकरण हैं यह युक्तियों से सिद्ध हो जाता है अन्यथा यानी सूत्र अनुसार जीवों को ही पकड़ा जायेगा तो जीवों के उन संरम्भ आदि परिणामों का ग्रहण नहीं हो सकने का प्रसंग आजावेगा जो कि इष्ट नहीं है यहां तक जीवाधिकरण आस्रव का प्रतिपादन कर दिया गया है।
ततः परमधिकरणमाह।
आदि के जीवाधिकरण आस्रव का निरूपण हो चुका है उससे परले द्वितीय अजीवाधिकरण का स्पष्ट प्रतिपादन करने के लिये सूत्रकार इस अग्रिम सूत्र को कहते हैं। निर्वर्तनानिक्षेपसंयोगनिसर्गा द्विचतुर्द्वित्रिभेदाः परम् ॥९॥
दो भेद वाली निर्वर्तना और चार भेद वाला निक्षेप तथा दो भेद वाला संयोग एवं तीन भेद वाला निसर्ग यों ग्यारह प्रकार का परला अजीवाधिकरण आस्रव है। अर्थात्-जो बनाई जाय वह निर्वतना है । निक्षेप का अर्थ स्थापन किया जाना है । जो मिला दिया जाय वह संयोग है और जो प्रवृत्ति में आवे वह निसर्ग है । इस प्रकार इन अजीव अधिकरणों का अवलम्ब पाकर आत्मा के आस्रव उपजता है तिस कारण यह अजीवाधिकरण आस्रव कहा जाता है । भाव में भी उक्त शब्दों की सिद्धि है। ____अधिकरणमित्यनुवर्तते । निर्वर्तनादीनां कर्मसाधनं भावो वा सामानाधिकरण्येन वैयाधिकरण्येन वाधिकरणसंबंधः कथंचिद्भेदाभेदोपपत्तेः। द्विचतुर्द्वित्रिभेदा इति द्वन्द्वपूर्वोऽन्यपदार्थनिर्देशः ।
- "अधिकरणं जीवाजीवाः" इस सूत्र से अधिकरण इस पद की अनुवृत्ति कर ली जाती है जिससे कि परला अजीवाधिकरण मूलगुण निवर्तना आदि ग्यारह भेदों को धार रहा प्रतीत हो जाता है। इस सूत्र में पड़े हुये निबर्तना आदि शब्दों की कर्म में प्रत्यय कर सिद्धि कर ली जाय अथवा भाव में युट,