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________________ ४६६ श्लोक - वार्तिक जायेगा ? यों कहने पर तो आचार्य उत्तर कहते हैं कि बुद्धि सम्बन्धी व्यापार से भेद करके भेद भाव की सिद्धि हो जाने के कारण वह परिस्पन्द ही विशेषक हो जाता है "देवदत्तः पठति" देवदत्तेन पठ्यते' यहाँ जैसे बुद्धि अनुसार कुछ परिणतियों का लक्ष्यकर स्वातंत्र्य या पारतंत्र्य की विवक्षा कर ली जाती है उसी प्रकार बुद्धि सम्बन्धी व्यापार से परिस्पन्द की विशेषताओं अनुसार तीव्र आदि भावों का अन्तर पड़ जाता है। अथवा एक बात यह है कि आत्मा से अभिन्न होने के कारण तीव्र आदिकों का भी भावपना सिद्ध है ऐसी दशा में अनेक आत्माओं के यथायोग्य तीव्र स्वरूप भाव या मन्द स्वरूप भाव युगपत् सम्भवते सन्ते आस्रवों की विशेषताओं को कर देते हैं भाव का सिद्धान्त अर्थपरिणतियां हैं जो कि परिद्रव्यों से अभिन्न हैं अतः बुद्धि सम्बन्धी व्यापार की नहीं अपेक्षा रखते हुए भी वस्तुभूत तीव्र आदि आत्मक भावों द्वारा आस्रवों में विशेषतायें उपज बैठती हैं । कारण भेद से कार्य भेद हो जाना अनिवार्य है कारण शक्तियों में व्यर्थ की पर्यालोचना नहीं चल सकती है। किं च, भावस्य भूयस्त्वात् असंख्येयलोकपरिमाणो हि जीवस्यैकैकस्मिन्नपि कषायादिपरिणाभावः श्रूयते । ततो युक्तं भावस्य युगपत्तीवादीनां विशेषकत्वं । एकत्वेऽपि वा भावस्य परेष्टया बुद्धयानेकत्वकल्पनान्न चोद्यमेतत् । I एक बात यहाँ यह भी है कि जैन सिद्धान्त अनुसार वास्तविकरूप से भाव परिणतियाँ बहुत सी हैं । जीव के एक एक भी कषाय, इन्द्रिय, अत्रत, आदि परिणाम में असंख्यात लोकों के प्रदेशों बरावर असंख्यातासंख्यात नामक संख्या परिमाण को धार रहे भाव हैं ऐसा आर्षशास्त्रों में सुना जा रहा है एक एक कषायाध्यवसायस्थान के लिये असंख्यात लोक प्रमाण अनुभागाध्यवसाय स्थान नियत हैं अतः अनेक आत्माओं या एक आत्मा के अनेक गुण अथवा उन गुणों के प्रतिपक्षी कर्मों के उदय अनुसार हुये भाव युगपत् अनेक हो सकते हैं । तिस कारण भाव को युगपत् तीव्र आदिकों का विशेषकपना युक्तियों से सिद्ध हो जाता है अतः दूसरे नैयायिक या वैशेषिकों की अभीष्टता करके भाव का एकपना होते हुये भी बुद्धि कर के अनेकपन की कल्पना कर देने से यह उक्त चोद्य हम जैनों के ऊपर नहीं चल सकता है हम दो, तीन, ढंगों से उक्त चोद्य के नहीं लागू होने को समझा चुके हैं। । वीर्यस्यात्मपरिणामत्वान्न पृथग्ग्रहणमिति चेन्न, तद्विशेषवतो व्यपरोपणादिष्वास्रवभेदज्ञापनार्थत्वात् पृथक्त्वं तद्ग्रहणस्य । वीर्यवतो ह्यात्मनस्तीव्रतीव्रतरादिपरिणामविशेषो जायत इति प्राणव्यपरोणादिष्वा त्रवफलभेदो ज्ञायते । तथा च तीव्रादिग्रहणसिद्धि: । इतरथा हि जीवाधिकरणस्वरूपत्वाद्वीर्यवत्तीवादीनामपि पृथग्ग्रहणमनर्थकं स्यात् तन्निमित्तत्वाच्छरीराद्यानं त्यसिद्धिः । कथं ? अनुभागविकल्पादास्रवस्यानं तत्वात्तत्कार्य शरीरादीनामनं तत्वोपपत्तेः । यहाँ कोई पण्डित आशंका करता है कि वीर्य तो आत्मा का ही परिणाम है अधिकरण हो जीव के कह देने से ही उसके परिणाम माने गये वीर्य का ग्रहण हो ही जाता है परिणामों वाला ही परिणामी जीव अधिकरण हो सकता है अतः आस्रव के उक्त विशेषकों में वीर्य का पृथकू ग्रहण करना हीं है । आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि विशेषरूप से उस वीर्य वाले आत्मा का प्राणिहिंसा, असत्यभाषण आदि क्रियाओं के करने में भिन्न भिन्न प्रकार का आस्रव होता है इस बात
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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