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छठा-अध्याय
४६५ युगपदसंभवाद्भावशब्दस्यायुक्तं विशेषणमिति चेन्न, बुद्धिविशेषव्यापारात्तस्य तद्विशेषणत्वोपपत्तेः । न हि सत्प्रत्ययाविशेषाद्विशेषलिंगाभावादेको भावः सत्तालक्षण एवेति युक्तं, भाववैविध्यात् । द्विविधो हि स्याद्वादिनां भावः परिस्पंदरूपोऽपरिस्पंदरूपश्च । तत्रापरिस्पंदरूपोंऽतर्द्रव्याणामस्तित्वमात्रमनादिनिधनं तदेकं कथंचिदिति माभूद्विशेषक, परिस्पंदरूपस्तु व्ययोदयात्मकस्तीवादीनां विशेषकः कायादिव्यापारलक्षणः सकृदुपपद्यते, कायादिसवस्य च तस्याभिमतत्वात् ।
___यहां कोई शंका उठाता है कि भाव तो द्रव्य का आत्मभूत परिणाम है वह सदा एक ही रहता है अतः भाव शब्द का एक ही साथ तीव्र, मन्द आदि अनेकों के साथ विशेषण हो जाना असम्भव है जिस प्रकार कि एक गोत्व यानी गोपना कोई अनेक खण्ड, मुण्ड, आदि गो द्रव्यों की विशेषता करने वाला नहीं है यह गोत्व तो केवल सभी व्यक्तियों में अन्वित हो रहा सन्ता केवल "गाय है गाय है बैल है बैल है" ऐसे ज्ञान और शब्द योजनाओं का हेतु है तिसी प्रकार “सन्मात्र भावलिंगं स्यादसंपृक्तं तु कारकैः। धात्वर्थः केवलः शुद्धो भाव इत्यभिधीयते" सत् सत्, सन् सन् , सती, सती ऐसे आकार वाले ज्ञान और शब्द योजना होने देने का केवल हेतु हो रहा भाव भी तीव्र आदि का विशेष करने वाला नहीं है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि बुद्धि में विचार कर लेने के अनुसार एक पदार्थ भी अनेक रूप से विवक्षित कर लिया जाता है। विशेष-विशेष बुद्धियों का व्यापार हो जाने से उस भाव को उन तीव्र आदि परिणामों का विशेषणपना घटित हो जाता है। देखो भाव एक ही प्रकार का नहीं वैशेषिकों ने एक सत्त्व मान रखा है कि सत्-सत् ये प्रत्यय विशेषताओं से रहित होकर द्रव्य, गुण, कर्मों, में एक सा होता है जड़ या चेतन पदार्थों में एक सी ठहर रही उस सत्ता की विशेषताओं के ज्ञापक चिन्हों का अभाव है इस कारण सत्ता स्वरूप भाव एक ही है इस प्रकार नैयायिक या वैशेषिक का कहना युक्तिपूर्ण नहीं है कारण कि भाव दो प्रकार के माने गये हैं स्याद्वादियों के यहाँ हलन, चलन, आदि परिस्पन्द स्वरूप और रुचि, तत्त्वज्ञान, सामायिक, उपशम, आदि अपरिस्पन्द स्वरूप यो नियम से दो प्रकार के भाव गिनाये हैं “वर्तनापरिणामक्रियाः परत्वापरत्वे च कालस्य” इस सूत्र से भी यह बात ध्वनित हो चुकी है उन दो भावों में सम्पूर्ण द्रव्यों के अन्तरंग में अनादि अनन्त काल तक परिणम रहा केवल अस्तित्वमात्र है वह भाव सम्पूर्ण सत्ताओं का संग्रह कर एकत्रित किया गया महासत्ता स्वरूप कथंचित् एक है इस कारण वह एक महासत्ता रूप भाव भले ही तीव्र आदि परिणामों की विशेषताओं को कराने वाला नहीं होवे किन्तु दूसरा व्यय, उत्पाद स्वरूप हो रहा.परिस्पन्द स्वरूप भाव तो तीव्र आदिकों का विशेष करने वाला हो जावेगा जो कि परिस्पन्द काय, वचन, आदि का अवलम्ब लेकर व्यापार करना स्वरूप है उस परिस्पन्द आत्मक भाव का युगपत्पना बन जाता है क्योंकि वह भाव काय आदि का सत्त्व है ऐसा अभीष्ट किया गया है
_कायवाङ्मनःकर्मयोगाधिकारात्कथं तस्य विशेषकत्वमिति चेत् बौद्धाद् व्यापारात् भेदेनापोद्धारसिद्धेः । आत्मनोऽव्यतिरेकाद्वा तीव्रादीनां भावत्वसिद्धेः ।
यहाँ कोई आक्षेप करता है कि "कायवाङ्मनःकर्म योगः" काय, वचन, मनों के अवलम्ब से हुआ परिस्पन्द स्वरूप योग है इसका अधिकार चला आ रहा है दूसरे सूत्र द्वारा उस परिस्पन्द को आस्रव कह दिया गया है ऐसी दशा में उस परिस्पन्द को विशेषताओं का सम्पादकपना भला कैसे बन