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छठा-अध्याय
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छेदनादिक्रियासक्तचित्तत्वं स्वस्य यद्भवेत् । परेण तत्कृतौ हर्षः सेहारंभकिया मता ॥२३॥ परिग्रहाविनाशार्था स्यात्पारिमहिकी किया।
दुर्वक्त कवचो ज्ञानादौ सा मायादिकिया परा ॥२४॥ आरम्भ क्रिया, पारिग्रहिकी क्रिया, माया क्रिया, मिथ्यादर्शन क्रिया, अप्रत्याख्यान क्रिया, ये क्रियाओं का पांचमा पंचक है इनमें पहिली आरम्भ क्रिया का अर्थ यह है कि प्राणियों के छेदन, भेदन, मारण आदि क्रियाओं में जो अपने चित्त का आसक्त होना है अथवा दूसरे करके उन छेदन आदि क्रियाओं के करने में हर्ष मानना है वह यहां आरम्भ क्रिया मानी गयी है। क्षेत्र, धन, आदि परिग्रह का नहीं विनाश करने के लिये जो प्रयत्न होगा वह पारिग्रहिकी क्रिया है। ज्ञान, दर्शन, आदि में जो दुष्टवक्तापन या खोटे मायाचार अनुसार वचन कहते हये वंचना करना है यह अन्य क्रियाओं से न्यारी माया क्रिया है। माया क्रिया के आदि में माया शब्द पड़ा हुआ है अतः इस क्रिया में वक्रता यानी मायाचार की प्रधानता है।
मिथ्यादिकारणाविष्टदृढीकरणमत्र यत् । प्रशंसादिभिरुक्तान्या सा मिथ्यादर्शन किया ॥२५॥ वृत्तमोहोदयात्पुंसामनिवृत्तिः कुकर्मणः।
अप्रत्याख्या कियेत्येताः पंच पंच कियाः स्मृताः ॥२६॥ मिथ्यामतों के अनुसार मिथ्यादर्शन आदि के कारणों में आसक्त होरहे पुरुष का इस मिथ्या मत में ही प्रशंसा, सत्कार, पुरस्कार आदि करके जो दृढ करना है कि तुम बहुत अच्छा काम कर रहे हो यों अदृढ़ को दृढ़ कर देना है वह यहाँ मिथ्या दर्शन क्रिया कही गयी है जो कि अन्य क्रियाओं से न्यारी है। संयम को घातने वाले चारित्रमोहनीय कर्म का उदय होजाने से आत्माओं के जो कुकर्मों से निवृत्ति नहीं होना है वह अप्रत्याख्यानक्रिया है इस प्रकार ये पाँच क्रियायें ऋषि आम्नाय अनुसार स्मरण होरही चली आचुकी हैं यों यहाँ तक पाँच पंचकों अनुसार पच्चीस क्रियाओं का लक्षण पूर्वक निर्देश कर दिया गया है। विशेष यह कहना है कि "स्मृताः शन कि "स्मृताः" शब्द का यह अभिप्राय है
सवज्ञ क उपदेश की धारा से ऋषिसम्प्रदाय अनुसार अब तक जैन सिद्धान्त के विषयों का स्मरण होता चला आ रहा है कितनी ही धार्मिक बातें यदि उपलब्ध शास्त्रों में नहीं लिखी हैं और वे कुलक्रम या जैनियों की आम्नाय अनुसार चली आरही हैं तो वे भी प्रमाण हैं । देखिये लाखों करोड़ों, स्त्री पुरुषों की वंश परम्परा का निर्दोषपना पुरुषा पंक्ति से कहा जारहा आज तक धारा प्रवाह रूप से चला आता है तो वह असंकर होरही वंश परम्परा प्रामाणिक ही समझी जायगी। आज कल के सभी निर्दोष स्त्री पुरुषों की वंश परम्परा का शास्त्रों में तो उल्लेख नहीं है अतीन्द्रियदर्शी मुनियों का सत्संग भी दुर्लभ है अतः यह कुलीनता जैसे वृद्धपरम्परा द्वारा उक्त होरही प्रमाण मान ली जाती है उसी प्रकार चून, बूरा, पिसा हुआ मसाला, दूध, घी, आदि के शुद्ध बने रहने की तीन दिन, पाँच दिन, दो घड़ी, आदि की काल मर्यादा को भी आम्नाय अनुसार प्रमाण मान