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श्लोक-वार्तिक पापप्रवृत्तावन्येषामभ्यनुज्ञानमात्मना। स्यान्निसर्गक्रियालस्यादकृतिर्वा सुकर्मणां ॥१८॥ -- पराचरितसावधप्रकाशनमिह स्फुटं।
विदारणक्रिया त्वन्या स्यादन्यत्र विशुद्धितः॥१८॥ क्रियाओं का चौथा पंचक स्वहस्त क्रिया, निसर्ग क्रिया, विदारण क्रिया, आज्ञाव्यापादकी क्रिया, अनाकाक्षिकी क्रिया इस प्रकार है तिनमें दूसरों से करने योग्य कार्य का जो स्वयं करना है वह यहां स्वहस्तक्रिया मानी गयी है। इस क्रिया में पाप की प्रधानता है ऐसा पण्डितों का विचार है। दूसरों को पाप में प्रवृत्ति कराने के लिये स्वयं आत्मा करके जो अन्य पुरुषों को अनुमति दे देना हैं वह निसर्ग क्रिया है अथवा आलस्य से श्रेष्ठ कर्मों का नहीं करना भी निसर्ग क्रिया है। तथा दूसरों करके आचरे गये पाप सहित कर्मों का स्पष्ट रूप से प्रकाश कर देना यहां विदारण क्रिया है जो कि इतर क्रियाओं से या इन्द्रिय आदिक से भिन्न हैं हां आत्मा की विशुद्धि से दसरे की हित कामना रखते हुये यदि विद्यार्थी, पुत्र, मित्र, श्रोता, आदि की सावध क्रियाओं को प्रकट किया जायेगा तो विदारण क्रिया नहीं समझी जायेगी अतः आत्मा विशुद्धि से भिन्न अवस्थाओं में कालुष्य होने पर विदारण क्रिया समझी जाय ।
आवश्यकादिषु ख्यातामहदाज्ञामुपासितुं । अशक्तस्यान्यथाख्यानादाज्ञाव्यापादिकी क्रिया ॥२०॥ शाट्यालस्यवशादहत्प्रोक्ताचारविधौ तु यः। अनादरः स एव स्यादनाकांक्षक्रियाविदां ॥२१॥ एताः पंच क्रियाः प्रोक्ताः परास्तत्त्वार्थवेदिभिः। .
कषायहेतुका भिन्नाः कषायेभ्यः कथंचन ॥२२॥ छः आवश्यक, पांच समिति, आदि कृत्यों में बखानी गयी श्री अन्तिदेव की आज्ञा का परिपालन करने के लिये असमर्थ हो रहे प्रमादी जीव का अन्य प्रकारों करके व्याख्यान कर देने से आज्ञाव्यापादिकी क्रिया हो जाती है। अर्थात्-कोई-कोई पण्डित स्वयं नहीं कर सकने की अवस्था में जिनवाणी के वाक्यों का दूसरे प्रकारों से ही अर्थ का अनर्थ कर बैठते हैं । “जिनगेहो मुनिस्थितिः" के स्थान पर, "जिनगेहे मुनिस्थितिः" कह देते हैं उद्दिष्ट त्याग के प्रकरण में न जाने क्या-क्या उद्दिष्ट का अर्थ करते हैं अतः अपनी अशक्ति या कषायों के वश होकर जिनागम के अर्थ का परिवर्तन करना महान कुकर्म है। तथा तीर्थकर अर्हन्तदेव करके निर्दोष कही गयी आचार क्रिया की विधि में शठता या आलस्य के वश से जो अनादर करना है वही तो विद्वानो के यहां अनाकांक्षा क्रिया कही जा सकती है। ये स्वहस्त क्रिया आदि पांच क्रियायें तत्त्वार्थशास्त्र के वेत्ता विद्वानों करके भले प्रकार अन्य क्रियाओं से भिन्न कह दी गयीं हैं । ये क्रियायें कषायों को हेतु मान कर उपजती हैं अतः क्रोध आदि कषायों से किसी न किसी प्रकार भिन्न हैं। कषायें कारण हैं और ये क्रियायें कार्य हैं इनका मिथः कार्य कारणभाव सम्बन्ध है।