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________________ ४६० श्लोक - वार्तिक लिया जाता है। क्रियाकोश में किन-किन बातों को कहाँ तक लिखा जा सकता है बुद्धिमानों को चाहिये कि “अनादौ सति संसारे दुर्वारे मकरध्वजे । कुले च कामिनीमूले का जातिपरिकल्पना” ऐसे प्रमाणाभास देकर जाति, कुल, व्यवस्था को ढीला नहीं करें । लोटा मांजना, हाथ मटियाना, सूतक पातक से की गयीं अशुद्धियां, म्लेच्छ संसर्ग की अशुद्धि आदि के प्रत्याख्यान का उपाय इन असंख्य प्रकरणों को कहाँ तक शास्त्रों में देखते फिरोगे । जिस किसी लौकिक क्रिया से सम्यग्दर्शन और चारित्र में हानि नहीं होय वह सभी लौकिक विधि प्रमाण मानी गयी है। इसी प्रकार खड़े हो कर पूजन करना, बैठ कर शास्त्रजी पढ़ना, अचित्तद्रव्य से पूजा करना, आह्वान, स्थापन, सन्निधीकरण, पूजन, विसर्जन आदि क्रियाओं में चली आ रही आम्नाय ही प्रमाण समझी जाती है। कहीं-कहीं तो शास्त्रों के लिये भी प्रमाणता को देने वाली आम्नाय मानी गयी है अतः मूलसंघ सम्प्रदाय का पद भी बहुत ऊँचा है। सभी विषयों में शास्त्रों की साक्षी माँगना अथवा आचमन, तर्पण, गुह्यांग पूजा आदि मिथ्यात्व वर्द्धक क्रियाओं के पोषक चाहे जिस शास्त्रको प्रमाण मान बैठना समुचित नहीं है । क्वचित् जैन मन्दिरों में अजैन देवों की मूर्तियां न जाने किस किस देश, काल, राजा, प्रबल प्रजा की परिस्थिति में पराधीन होकर प्रविष्ट करनी पड़ी हैं जिसकी अभी तक कोई चिकित्सा नहीं हो पायी है । सिद्धक्षेत्र गिरनार जी पर्वत पर हिन्दुओं और मुसलमानों तक का आधिपत्य है । जैनों की निर्बलता से कितने ही तीर्थ, शास्त्र, जिनालय, जिनविम्ब नष्ट किये जा चुके हैं। अब भी कितने ही जिनायतनों पर विधर्मियों का अधिकार है । जीव हिंसा, अविनय की जाती है। इसी प्रकार समीचीन शास्त्रों में भी भ्रष्ट साहित्य का प्रक्षेप किया गया है अथवा किसी जैनाभास भट्टारक या विद्वान् को वैसा प्रक्षेप करने के लिये बाध्य होना पड़ा है। प्रकरण में यही कहना है कि समीचीन शास्त्रों से जिन क्रियाओं में कोई बाधा नहीं आती है वृद्ध परम्परा द्वारा स्मरण हुई चली आरहीं वे सभी धार्मिक क्रियायें प्रमाण हैं तभी तो बड़े-बड़े आचार्य स्मृताः, आम्नाताः, जिणेहि णिद्दिट्ठ, आदि पदों से पूर्व सम्प्रदाय प्राप्त प्रमेय का प्रतिपादन करते हैं । ननु चेंद्रियकषायाव्रतानां क्रियास्वभावानिवृत्तेः क्रियावचनेनैव गतत्वात् प्रपंचमात्रप्रसंग इति चेन्न, अनेकांतात् । नामस्थापनाद्रव्येंद्रिय कषायात्रतानां क्रियास्वभावत्वाभावात् द्रव्यार्थादेशात्पर्यायार्थादेशात्तेषां क्रियास्वभावत्वात् । यहां कोई शंका उठाता है कि सूत्र में प्रथम कहे गये इन्द्रिय, कषाय, और अव्रतों की भी किया स्वरूप करके निवृत्ति नहीं है अर्थात् - इन्द्रिय आदि भी क्रिया स्वभाव हैं अतः क्रियाओं के कहने करके ही उनका प्रयोजन प्राप्त हो जाता है तो फिर उन इन्द्रिय आदिकों का ग्रहण करना व्यर्थ है यों सूत्रकार को इतना लम्बा सूत्र बना कर केवल व्यर्थ के प्रपंच रखने का ही प्रसंग आता है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि यह कोई एकान्त नहीं है कि इन्द्रिय, कषाय, अव्रत, ये क्रिया स्वरूप ही होवें, क्योंकि नाम इन्द्रिय, स्थापना इन्द्रिय, द्रव्य इन्द्रिय, और नाम कषाय, स्थापना कषाय, द्रव्यकषाय, तथा नाम अव्रत, स्थापना अब्रत, द्रव्य अव्रत, इनको परिस्पन्द स्वरूप नहीं होने से किया स्वभावपना नहीं है । अर्थात् - सभी अर्थों के नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव, ये चार भेद बखाने जा सकते हैं । पहिले तीन में क्रिया नहीं पायी जाती है। देखिये नाम इन्द्रिय आदि में नाम होने के कारण क्रिया नहीं है । स्थापना में भी मुख्य किया नहीं पायी जाती है यह वही है ऐसा वचन या ज्ञान ही स्थापना में प्रवर्तता है आगामी काल में होनेवाले द्रव्य निक्षेप स्वरूप इन्द्रिय, कषाय, अव्रतों, में तो वर्तमान की क्रिया नहीं है अतः द्रव्यार्थिकनय
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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