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श्लोक-वार्तिक
जीव के इन्द्रिय कषाय आदि विशेष परिणतियों का होना असिद्ध नहीं है क्योंकि सर्वज्ञ की आम्नाय अनुसार कहे गये आर्ष शास्त्रों में जीव के परिणामीपनका निरूपण किया गया है अर्थात् "परिणमदिकमेणप्या” “जीवकृतं परिणाम" परिणममाणस्य चितश्चिदात्मकैः स्वयमपि स्वकैर्भावैः भवति हि निमित्तमात्र पौद्गलिकं कर्म तस्यापि परिणममाणो नित्यं ज्ञानविवर्तैरनादिसन्तत्या, परिणामानां स्वेषां सभवति कर्ता च भोक्ता च" जीव के परिणाम होने का प्रतिपादन करने वाले ऐसे आगमवाक्य मिलते हैं । स्वयं सूत्रकारने जीव को द्रव्य कहते हुये गुणपर्यायवाले पदार्थ को द्रव्य कहा है हम जैन तो सांख्यों के समान आत्मा को कूटस्थ नहीं मानते हैं अतः परिणामी आत्मा के इन्द्रियाँ, कपाय, अत्रत और क्रियायें ये विवर्त सम्भव जाते हैं । एक बात यह भी है कि ये इन्द्रिय आदिक आस्रव के द्वार अन्य कारण विशेषों की अपेक्षा रखते हैं अतः कारण विशेषों की अपेक्षा रखने वाला कोई परिणाम विशेष यानी कार्य ही हो सकता है आत्मा की स्पर्शन आदिक पाँच इन्द्रियां इन स्पर्श आदि विषयों में प्रवर्त रही हैं उन भावेन्द्रियों का उपकार (सहायता) करने में व्यापार कर रहीं पाँच द्रव्येन्द्रियां हैं जिनके कि लक्षण या भेदों का निरूपण दूसरे अध्याय में किया जा चुका है यहाँ सूत्र में सामान्य रूप करके “इन्द्रिय" पद का ग्रहण कर देने से भावेन्द्रियों के साथ द्रव्येन्द्रियां भी पकड़ ली जाती समझ लेनी चाहिये भावेन्द्रियों के समान द्रव्ये - न्द्रियों द्वारा भी आस्रव होता है भावेन्द्रियों के उपयोग के बिना अकषाय जीवों की द्रव्येन्द्रियां आस्रव की सहायक नहीं हो पाती हैं ।
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तानि वीर्यांतरायेंद्रियज्ञानावरणक्षयोपशमान्नामकर्मविशेषोदयाच्चोपजायमानानि कषायेभ्यो मोहनीयविशेषोदयादुत्पद्यमानेभ्यः कथंचिद्भिद्यतेनियतविषयत्वाच्च । कषायाः पुनरनियतविषया वक्ष्यमाणास्ततो भिन्नलक्षणानि हिंसादीन्यत्रतानि च वक्ष्यते । क्रियास्तत्राभिधीयते पंचविंशतिः । अन्तरंग कारण हो रहे वीर्यान्तराय और इन्द्रियज्ञानावरण कर्मों के क्षयोपशम से तथा अंगोपांग आदि विशेष नामकर्म उदय से उपज रही सन्ती वे पांचों द्रव्येन्द्रियां और भावेन्द्रियाँ इन मोहनीय कर्म की विशेष प्रकृतियों के उदय से उपज रहे क्रोध आदि कषायों से कयंचित् भेद को प्राप्त हो रही हैं कषायों से इन्द्रियों के भिन्न होने में एक यह भी कारण है कि पांचों इन्द्रियों के विषय स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, और शब्द, नियत हैं। हाँ मन का विषय नियत नहीं है जो कि यहां पांच इन्द्रियों में प्रथम से ही नहीं गिना गया है किन्तु अग्रिम ग्रन्थ में कही जाने वाली कषायें तो फिर नियत विषय वाली नहीं हैं । चाहे जिस किसी पदार्थ पर लोभ या क्रोध किया जा सकता है मायाचार और अभिमान भी सभी पदार्थों में किये जा सकते हैं जैसे कि मन इन्द्रिय द्वारा चाहे जिसका विचार कर लिया जाता है तिस कारण इन्द्रियों से कषाय भिन्न हैं तथा हिंसा, अनृत आदि अव्रत आगे सातमे अध्याय में कहे जायेंगे, ये पांच अव्रत भी उन इन्द्रियों और कषायों से भिन्न लक्षण वाले हैं। त्रसहिंसा, संकल्पीहिंसा, स्थूलझूठ, परस्त्री आदि के परित्याग की यदि कोई प्रतिज्ञा नहीं ली है तो जीवों की निरर्गल अव्रत स्वरूप परिणति है जैसे कि पूजन, अध्ययन, दान, नहीं करने वाले श्रावकों की पुण्य क्रिया नहीं करना स्वरूप प्रमाद परिणतियां अशुभ कर्मों का आस्रव कराती रहती हैं । पच्चीस क्रियायें भी उक्त तीनों से निराली हैं । इन्द्रिय विषय लोलुपता, क्रोधादि कषायें, हिंसा आदि अव्रत, और सम्यक्त्व मिथ्यात्व, आदि क्रियायें ये सब आत्मा की परिणतियां न्यारी-न्यारी अनुभूत हो रही हैं। विवेक ज्ञानियों को ये उन्तालीस भेद स्पष्ट प्रतीत हो जाते हैं जो कि साम्परायिक आस्रव के भेद हैं। अब ग्रन्थकार उन भेदों में कहीं गई पच्चीस क्रियायों को अग्रिम वार्त्तिकों द्वारा स्पष्ट कह रहे हैं सो सुनिये ।