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छठा अध्याय
तत्र चैत्यश्रुताचार्यप्रजास्तवादिलक्षणा | सम्यक्त्ववर्धनी ज्ञ ेया विद्भिः सम्यक्त्वसत्क्रिया ॥२॥ कुचैत्यादिप्रतिष्ठादिर्या मिथ्यात्व प्रवर्धनी । सामिध्यात्वक्रिया बोध्या मिथ्यात्वोदयसंसृता ॥३॥ कायादिभिः परेषां यद्गमनादिप्रवर्तनं । सदसत्कार्यसिद्धयर्थं सा प्रयोगक्रिया मता ॥ ४ ॥
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उन पच्चीस क्रियाओं में पहिली सम्यक्त्व क्रिया, मिथ्यात्व क्रिया, प्रयोग क्रिया, समादान क्रिया, ईर्यापथ क्रिया, ये पांच क्रियायें हैं तहां जिन विम्ब, आप्तोपज्ञशास्त्र, निर्ग्रन्थ आचार्य, इनकी पूजा करना, स्तुति करना, दर्शन करना, ध्यान करना आदि स्वरूप प्रशंसनीय सम्यक्त्व क्रिया है जो कि विद्वानों करके सम्यक्त्व को बढ़ाने वाली समझी गई है। तथा कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र आदि की प्रतिष्ठा करना, श्री जिनेन्द्र देव के अतिरिक्त अन्य देवताओं की स्तुति करना, पूजा करना आदि जो भी कोई मिथ्यात्व को अधिक बढ़ाने वाली क्रियायें हैं वह मिथ्यात्व क्रिया है जो कि पूर्व में बँधे हुये मिथ्यात्व कर्म के उदय को अच्छा आश्रय पाकर हुई मिथ्यादृष्टि जीवों के यहां प्रख्यात हो रही समझ लेनी चाहिये । प्रशस्त और अप्रशस्त कार्यों की प्रसिद्धि करने के लिये काय, वचन, आदि करके दूसरे जीवों की जो गमन, आगमन, आदि प्रवृत्ति करा देना है वह तीसरी प्रयोग क्रिया मानी गयी है ।
नुः कायवाङ्मनोयोगान्नो निवर्तयितुं क्षमाः । पुद्गलास्तदुपादानं स्वहेतुद्वयतोऽथवा ॥५॥ संयतस्य सतः पुंसोऽसंयमं प्रति यद्भवेत् । आभिमुख्यं समादानकिया सा वृत्तघातिनी ॥६॥
पथक्रिया तत्र प्रोक्ता तत्कर्महेतुका । इति पंच क्रियास्तावच्छुभाशुभफलाः स्मृताः ॥७॥
अपने अन्तरंग कारण हो रहे वीर्यान्तराय कर्म और ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम एवं अंगोपांग कर्म का उदय तथा बहिरंग कारण माने गये योग वर्गणा, भोजन, आदि यों दोनों कारणों से आत्मा के काययोग, वचनयोग, मनोयोग, इनकी निवृत्ति नहीं कराने के लिये अर्थात् - योगों अनुसार मन, वचन, काय, को बनाने के लिये समर्थ हो रहे जो पुद्गल हैं उनका ग्रहण करना समादान क्रिया है । अथवा संयमी ही रहे सन्ते प्रशस्त आत्मा का जो अविरति के प्रति अभिमुख होना है वह समादान क्रिया है वह चारित्र का घात करने वाली मानी गयी है । उस ईर्यापथ यानी जीवदया पालते हुये धर्मार्थ मार्ग में चल रहे संयमी की गमन कर्म को हेतु मान कर उपजी हुई क्रिया तो उन क्रियाओं पांचमी save क्रिया अच्छी कही गयी है। इस प्रकार कोई शुभ फलों और अशुभ फलों को देने वाली ये पहिली पांच क्रियायें तो ऋषि आम्नाय अनुसार स्मरण की जा रहीं चली आ रही हैं।