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श्लोक - वार्तिक
योगधारी स्वामियों के द्विविधपने से भी योग दो प्रकार का समझा जाता है - इस बात को अग्रिम 'सूत्रद्वारा स्पष्ट कह रहे हैं। साथ ही उन कर्मों के आस्रव की संज्ञा भी प्रसिद्ध कर
स्वयं सूत्रकार दी जायगी।
सकषायाकषाययोः सांपरायिकेर्यापथयोः ॥ ४ ॥
क्रोध आदि कषायों के साथ वर्त रहे मिथ्यादृष्टि को आदि लेकर दशमे गुणस्थान तक जीवों के संसारपर्यटन कारक साम्परायिक कर्मका आस्रव होता है और कषाय रहित हो रहे ग्यारहमे, तेरह मे गुणस्थान वाले जीवों के संसारभ्रमण नहीं कराने वाले ईर्यापथ कर्म का आस्रव होता है । अर्थात् कषायवान जीवों के हो रहा आस्रव संसार वृद्धि का कारण है और अकषाय जीवों के एक समय स्थिति वाला सातावेदनीय कर्म का आस्रव तो केवल आना, चले जाना मात्र है । पहिले समय में सद्वेद्य का बंध होकर दूसरे समय में झटिति ही उसकी निर्जरा हो जाती है । पूर्वबद्ध कर्मों का उदय आने पर हुये अनुभाग रस में उस सातावेदनीय का मन्द अनुभाग भी सम्मिलित हो जाता है जो कि अविद्यमानवत् है ।
यथासंख्यमभिसंबंधमाह ।
इस सूत्र के उद्देश्य विधेयदलों का यथासंख्य दोनों ओर से सम्बन्ध कर लेना चाहिये । अर्थात् इतरेतरयोग वाले दो पदों का यथाक्रम से अन्वय लगा लो। इसी बात को ग्रन्थकार अग्रिम वार्त्तिक द्वारा कहते हैं ।
ससांपरायिकस्य स्यात्सकषायस्य देहिनः । ईर्यापथस्य च प्रोक्तोऽकषायस्येह सूत्रितः ॥१॥
देहधारी कषाय सहित जीव के वह साम्परायिक कर्म का आस्रव होगा और कषायरहित शरीरधारी जीव के ईर्यापथ कर्म का आस्रव होगा जो कि श्री उमास्वामी महाराज ने यहाँ प्रकरण में इस सूत्र से बहुत अच्छा कह दिया है।
इह सूत्रे स आस्रवः सकषायस्य जीवस्य सांपरायिकस्य कणः स्यात्, अकषायस्य पुनरीर्यापथस्येत्यास्त्रवस्योभयस्वामिकत्वात् द्वयोः प्रसिद्धिः ॥
इस सूत्र में कषायसहित जीव के साम्परायिक कर्मों का वह आस्रव होना कह दिया जाता है। और अकषाय जीव के फिर ईर्यापथकर्म का आस्रव हो सकेगा बताया गया है। इस प्रकार आस्रव के दोनों स्वामियों के हो जाने से दोनों भेदों की प्रसिद्धि हो जाती है ।
कषणादात्मनां घातात्कषायः कुगतिप्रदः ।
सह तेनात्मा सकषायः प्रवर्तनात् ॥॥२॥ कषायरहितस्तु स्यादकषायः प्रशांतितः । कषायस्य क्षयाद्व ेति प्रतिपत्तव्यमा गगात् ॥३॥