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________________ छठा-अध्याय ४४५ मनोयोग, यों तीनों प्रकार का सम्पूर्ण योग तो विशेष रूप से परिगणित करने पर असंख्येय भेदों वाला है। अर्थात् विशुद्धि, अविशुद्धि, के कषायाध्यवसाय स्थान असंख्यात लोक प्रमाण हैं इनसे विशिष्ट हो रहा योग असंख्यातासंख्यात प्रकार का है अथवा स्वयं व्यक्तिरूप से योग श्रेणी के असंख्यातमे भाग स्वरूप असंख्यातासंख्यात हैं “सेढि असंखेजदिमा जोगट्ठाणाणि होति सव्वाणि" (गोम्मटसार कर्मकाण्ड) ज्ञानावरणवीयाँतराययोः कर्मणोरिह। क्षयोपशमतोऽनंतभेदयोः स्पर्धकात्मनोः ॥४॥ प्रादुर्भावादनंतः स्याद्योगोऽनंतनिमित्तकः । अनंतकर्महेतुत्वादनंतात्मासूवत्वतः ॥५॥ अभव्य राशि से अनन्त गुणे और सिद्धराशि से अनन्तमे भाग कर्मप्रदेशोंके पिण्ड होरहे तथा अनन्त भेदों वाले स्पर्द्धक आत्मक तथा अनन्त भेदोंवाले ज्ञानावरण कर्म और वीर्यान्तराय कर्मके क्षयोपशम से उत्पत्ति होनेके कारण यहाँ प्रकरण में योग अनन्त संख्या वाला भी समझा जायगा। अर्थात् अनन्तानन्त कर्मो के क्षयोपशम से उपजे हुये तीनों योगों को अनन्त प्रकार का कहा जा सकता है। जिस योग के निमित्त कारण अनन्तानन्त हैं वे कार्य होरहे योग भी अनन्तानन्त होंगे इनकी अष्टसहस्री में इस सूक्ष्मकार्यकारण भाव को निरखिये। अथवा दूसरी बात यह है कि श्रेणी के असंख्यातमे भाग प्रमाण योगों में से किसी भी योग से अनन्तानन्त कार्योंका आस्रव होता है अतः अनन्त कर्मोके आगमन का हेतु होने से योग भी अनन्त प्रकार का कहा जायगा। कार्य अनन्त हैं तो कारण भी अनन्त होंगे। “भिन्नकार्याणां भिन्नकारणप्रभवत्वावश्यम्भावात्” तथा तीसरी बात यह है कि अनन्तानन्त आत्माओं के निकट कर्मनोकर्मों का आस्रव करा रहे न्यारे न्यारे योग अनन्तानन्त हैं । अनन्तानन्त संसारी आत्माओं में प्रत्येक के श्रेणी के असंख्यातमे भाग योगों में से प्रतिसमय कोई एक योग अवश्य होगा जबकि अनन्तानन्त जीव प्रतिक्षण योगों द्वारा कर्मों का आस्रव कर रहे हैं अतः वे योग व्यक्तिभेदेन अनन्तानन्त ही कह जायेंगे। यों तीन उपायों का अनन्तानन्तपना व्यवस्थित कर दिया गया है। असंख्येयोऽप्यसंख्याताध्यवसायात्मकोऽङ्गिनाम् । संख्यातश्च यथायोगं संक्षेपाद्विविधोऽप्यम् ॥६॥ संसारी प्राणियों के कषायाध्यवसाय स्थान जाति अपेक्षा असंख्यात लोक प्रमाण हैं व्यक्ति रूप से या अविभागप्रतिच्छेदों की अपेक्षा भले ही अनन्तानन्त होवें अतः असंख्यात अध्यवसाय स्थान आत्मक होरहा योग भी असंख्यातासंख्यात संख्या वाला माना जायेगा तथा वह योग सामान्य रूप से एक प्रकार, दो प्रकार, पन्द्रह प्रकार, यों शब्दवाच्य संख्या का अतिक्रमण नहीं कर संख्यातभेद वाला भी है। अतिसंक्षेप से भेदों की गणना करने पर यह योग यहाँ सूत्र में दो प्रकार भी कह दिया है जो कि भेदों की गणना का उपलक्षण है। स्वामिद्वैविध्याच्च द्विविधो योग इत्याह ।
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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