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________________ श्लोक- वार्तिक ननु चात्मनि शुभाशुभफलपुद्गलसमागमस्यात्म विशेषगुणकृतत्वान्न शुभाशुभकायादियोगकृतत्वं युक्तमिति चेन्न, तस्य विशुद्धिसंक्लेशपरिणामव्यतिरेकेणासंभवात् । धर्माधर्मौ तद्व्यतिरिक्तावेवेति चेन्न, भावधर्माधर्मयोर्विशुद्धिसंक्लेशरूपत्वात् । द्रव्यधर्माधर्मयोः पुद्गलस्वभावत्वात्, समागमस्य विशुद्धिसंक्लेश परिणामानुगृहीतस्य कायादियोगकृतत्वोपपत्तेः । स्वप्रसिद्धशुभाशुभफलपथ्यापथ्याहारादिपुद्गलसमागमस्य तत्कृतत्वनिश्चयात्तदभावे सर्वथा तदनुपपत्तेः । ४४४ यहां कोई वैशेषिक आक्षेप पूर्वक प्रश्न करते हैं कि आत्मा में शुभ अशुभ फल वाले पुद्गलों का समागम होना तो आत्मा के विशेष गुण हो रहे धर्म अधर्म, ( अदृष्ट ) करके किया गया है। आत्मा बुद्धि, इच्छा, प्रयत्न, गुण भी सहायक हो सकते हैं इस कारण उक्त सूत्र अनुसार शुभाशुभ फल वाले पुद्गलों के आस्रव का शुभ अशुभ काययोग, वचनयोग और मनोयोग करके किया जाना उचित नहीं है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि उस पुण्य पाप स्वरूप पुद्गलों के समागम हो जाने का विशुद्ध और संक्लेश परिणामों से अतिरिक्त अन्य कारणों करके असम्भव है । यदि वैशेषिक यों कहें कि उन विशुद्धि और संक्लेश परिणामों से व्यतिरिक्त हो रहे धर्म, अधर्म नामक गुण हैं ही। आत्मा में पाये जा रहे बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, भावना, इन नौ विशेष गुणों का आत्मा से सर्वथा भेद है । विशुद्धि और संक्लेश परिणामों से भी अदृष्ट सर्वथा भिन्न है । आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि जैन सिद्धान्त में पुण्य, पाप कर्मों के भाव कर्म और द्रव्य कर्म ये दो भेद माने गये हैं । कर्मों का उदय होने पर आत्मा के हुये क्षमा, दया, दान, स्वनिंदा, परनिंदा, स्वप्रशंसा, क्रोध, अज्ञान, रागद्वेष, आदि परिणाम तो भाव कर्म हैं और भाँग, गरिष्ठ भोजन, आदि के समान ज्ञानावरण आदि पुद्गल पिण्ड द्रव्य कर्म हैं। आत्मा के परिणाम हो रहे धर्म, अधर्म, स्वरूप पुण्य, पाप, हमारे यहाँ विशुद्धि और संक्लेश स्वरूप स्वीकार किये गये हैं तथा कार्मण स्कन्ध द्रव्य स्वरूप धर्म, अधर्म, को पुद्गलों का स्वभाव होना अभीष्ट किया गया है। विशुद्धि और संक्लेश परिणामों से अनुग्रह को प्राप्त हुये उस कर्मनाकर्मों के आस्रव का काय आदि योगों करके किया जाना बन जाता है कारण कि स्वयं निज में प्रसिद्ध हो रहे शुभ फल वाले पथ्य आहार, विहार और अशुभ फल वाले अपथ्य आहार, पान, आदि पुद्गलों के समागम का उन विशुद्ध, अविशुद्ध, काय आदि करके किया जाना निश्चित हो रहा है। उन काय आदि योगों का अभाव होने पर, अन्य सभी प्रकारों से उन पुद्गलों के आस्रव हो जाने की सिद्धि नहीं हो सकती है । वैद्यक विषय को थोड़ा भी जानने वाले स्त्री, पुरुष, या स्वास्थ्य का पाठ पढ़ने वाले विद्यार्थी इस बात का निश्चय कर लेते हैं कि शुभ अशुभ फल वाले पुद्गलों क आगमन विशुद्ध, अविशुद्ध, काय आदि योगों द्वारा सम्पादित होता है अतः उक्त सूत्र का प्रमेय इन अनुमानों से सिद्ध कर दिया है । विध्यात्तत्फलं चैवमात्रवो द्विविधः स्मृतः । कायादिरखिलो योगः सोऽसंख्येयो विशेषतः ॥३॥ यों योगों का द्विविधपना हो जाने ' उसका फल और आस्रव भी दो प्रकार का शास्त्रों में कहा गया चला आ रहा समझा जाता है । अर्थात्-शुभ अशुभ परिणामों से सम्पादित हुआ योग दो प्रकार है तदनुसार आस्रव भी दो प्रकार है और पुण्य पाप फल भी दो प्रकार है वह काय योग, वचन योग,
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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