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श्लोक-वार्तिक भाव या परमविशुद्धि उपजती है तब तो पुण्य या पाप किसी का भी बंध नहीं होता है प्रत्युत संवर और निर्जरा होते हैं । यो पुण्य, पाप के आस्रव का सिद्धान्त निर्णीत हो चुका है तिस कारण इस प्रकार होने पर जो हुआ उसे आगे वार्तिक द्वारा सुनिये।
शुभः पुण्यस्य विज्ञेयोऽशुभः पापस्य सूत्रितः।
संक्षेपाद्विप्रकारोऽपि प्रत्येकं स विधात्रवः ॥ १॥ शुभ परिणामों से सम्पादित हुआ शुभ योग पुण्य का आस्रव समझ लिया जाय और अशुभ योग पाप का आस्रव हो रहा विशेषतया जान लिया जाय जो कि सूत्र द्वारा कह दिया है। संक्षेप से वह आस्रव दो प्रकार का भी है तथापि प्रत्येक वह आस्रव दो प्रकार का माना जाता है कारण दल में शुभ योग अशुभ योग अनुसार कार्य कोटि में भी आस्रव, पुण्यास्रव, पापास्रव दो दो प्रकार हैं अथवा काययोग, वचनयोग, मनोयोग, इन तीनों आस्रवों में से प्रत्येक के पुण्यास्रव और पापास्रव यों दो दो भेद हैं। यहाँ “संक्षेपात्रिप्रकारोऽपि प्रत्येकं स द्विधास्रवः" यह पाठ अच्छा जचता है। संक्षेप से वह आस्रव काय परिस्पन्द, वचनपरिस्पन्द, कायावलंब-आत्मप्रदेशपरिस्पंद, यों तीन प्रकार का भी हो रहा प्रत्येक के पुण्यास्रव, पापास्रव, यों दो दो भेदों अनुसार दो भेद वाला है।
___ कायादियोगस्त्रिविधः शुभाशुभभेदात् प्रत्येकं स द्विविधोऽपि द्विविध एवास्रवो विज्ञेयः । पुण्यपापकर्मणोः सामान्यादाश्रयमाणयोर्द्विविधत्वेन सूत्रितत्वात् ।
काय अवलम्बी, वचन अवलम्बी, मन अवलम्बी यों योग तीन प्रकार का है। शुभ योग और अशुभ योग के भेद से वह प्रत्येक दो प्रकार का होता हुआ भी पुण्यासूव और पापास्रव अनुसार दो प्रकार का ही समझ लेना चाहिये क्योंकि शास्त्रपरम्परा द्वारा सामान्य रूप से पुण्य और पाप इन दो कर्मों को ही आचार्य आम्नाय अनुसार सुना जा रहा है । परमाणुओं की अपेक्षा अनन्तानन्त और जाति अपेक्षा असंख्यात तथा उत्तर प्रकृति भेद अनुसार एकसौ अड़तालीस व उदय अपेक्षा एकसौ बाईस एवं बंध अपेक्षा एकसौ बीस कर्मों को पुण्यकर्म और पापकर्म यों दो ही प्रकारों करके सूत्रों द्वारा कहा गया है । इस छठे अध्याय के अन्तिम दो सूत्रों को देख लीजिये। यहाँ केवल पुण्यास्रव और पापास्रव इन दो भेदों का ही निरूपण किया गया है।
कुतः पुनः शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्यास्रवो जीवस्येति निश्चीयत इत्याह ।
सूत्रकार ने उक्त सूत्र करके जो सिद्धान्त कहा है क्या वह राजाज्ञा के सदृश यों ही ननु, न च, कुतः, लगाये विना ही स्वीकार कर लिया जाय ? यदि नहीं तो फिर बताओ कि जीव का शुभ योग पुण्य का आस्रव और अशुभ योग जीव के पाप का आस्रव है इस दर्शन का किस प्रमाणसे निर्णय कर लिया जाता है ? ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर ग्रंथकार अग्रिम वार्तिक द्वारा समाधानवचन को कहते हैं।
शुभाशुभफलानां नुः पुद्गलानां समागमः ।
विशुद्धतरकायादिहेतुस्तत्त्वात्स्वदृष्टवत् ॥ २॥ शुभ और अशुभ फलों के सम्पादक पुद्गलों का आत्मा के निकट समागम होना (पक्ष) विशुद्ध