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________________ ४३९ छठा अध्याय षतः सयोगकेवल्यं तस्य तत्कारणमिति स एवास्रव प्रोक्तोऽत्र शास्त्रे संक्षेपादशेषास्रवप्रतिपत्त्यर्थत्वान्मिथ्यादर्शनादेरत्रैव योगेऽनुप्रवेशात् तस्यैव मिथ्यादर्शनाद्यनुरंजितस्य केवलस्य च कर्मागमनकारणत्वसिद्धेः । देखिये आत्मा का मिथ्यादर्शन परिणाम विचारा मिध्यादृष्टि जीव के ही ज्ञानावरण, मिथ्यात्व प्रकृति, आदि कर्मों के आगमन का कारण है किन्तु फिर द्वितीय गुणस्थानवर्त्ती सासादन से सम्यग्दृष्टि या तृतीय गुणस्थानवर्त्ती सम्यङिमध्यादृष्टि आदिक जीवों के ज्ञानावरण आदि का आस्रवण हेतु वह मिथ्यादर्शन नहीं है अतः मिध्यात्व को कर्म आगमन का हेतु कह देने से अव्याप्तिदोष आ जायेगा । इसी प्रकार बंध का हेतु मानी गयी अविरति भी संयम रहित जीवों के ही ज्ञानावरण आदि कर्मों का आस्रवण हेतु है किन्तु फिर पूर्ण रूप से संयमी हो रहे छठे गुणस्थानवर्त्ती मुनि के अथवा एक देश करके देशसंयमी हो रहे श्रावक के ज्ञानावरणादि कर्मों के आगमन का कारण वह अविरति कथमपि नहीं है । प्रमाद भी मिथ्यादृष्टि को आदि लेकर छठे गुणस्थानवर्त्ती प्रमत्त मुनियों पर्यन्त ही ज्ञानावरण आदि कर्मों का आगकरता है किन्तु अप्रमत्त, अपूर्वकरण आदि संयमियों के निकट कर्मों का आगमन हेतु प्रमाद नहीं है। तथा कषाय भी दश गुणस्थान तक कषायवाले जीवों के ही कर्म बंध का हेतु हो सकेगी। शेष बच रहे ग्यारहवें आदि गुणस्थानवर्त्ती उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय, और सयोग केवली जीवों के कर्म आगमन का हेतु कषाय नहीं है। हाँ, योग तो फिर मिध्यादृष्टि को आदि लेकर सयोगकेवली पर्यन्त अशेषरूप से जीवों के उस कर्म, नोकर्मों के आगमन का कारण है इस कारण इस तत्वार्थ शास्त्र ग्रन्थ में सूत्रकार करके वह योग ही आस्रव बहुत अच्छा कहा जा चुका है चूंकि संक्षेप से सम्पूर्ण आस्रवों की प्रतिपत्ति हो जाना इसका प्रयोजन है । पृष्ठ लग्न मिथ्यादर्शन, अविरति आदि का इस योग में ही प्रवेश हो जाता है क्योंकि मिथ्यादर्शन, अविरति आदि करके पीछे रंगे जा चुके केवल योग को ही कर्मों के आगमन का कारणपना सिद्ध है पीले लाल या हरे रंग से रंगा हुआ वस्त्र जैसे वस्त्र ही कहा जाता है। उसी प्रकार अनादिकाल से धड़ाधड़ कर्म नोकर्मों को खींच रहा योग भी पुनः मध्य मध्य में यथायोग्य मिथ्यादर्शन आदि भावों से रंगा जा रहा सन्ता भिन्न प्रकार के कर्मों का आगमनहेतु बन रहा है अतः योग को ही आस्रव कह रहे सूत्रकार के पूर्ववर्त्ती वचन का “ मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बंधहेतवः ।।" इस उत्तरवर्त्ती वचन के साथ कोई पूर्वापर विरोध दोष नहीं आता है । कीदृशः स योगः पुण्यस्यास्रवः कीदृशश्च पापस्येत्याह | मानू कोई जिज्ञासु पूछता है कि पुण्य, और पाप यों कर्म दो प्रकार के हैं सो बताओ कि किस प्रकार का वह योग पुण्य का आस्रव है ? और किस जाति का वह योग पाप के आस्रव का हेतु है ? इस प्रकार जिज्ञासा प्रवर्तने पर सूत्रकार महाराज अग्रिम सूत्र का परिभाषण करते हैं । शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य ॥ ३ ॥ अहिंसा भाव, सत्य भाषण, शास्त्र विनय, आत्म चिंतन, आदि शुभ परिणामों से बनाया गया शुभ योग तो पुण्य का आस्रव हेतु है और हिंसा करना, झूठ बोलना, मारने का विचार, आदि अशुभ परिणामों से सम्पादित हुआ अशुभ योग पाप का आस्रव ( आस्रव हेतु ) है ।
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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