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________________ ४३८ श्लोक-वार्तिक हैं कि यह तो नहीं कहना। क्योंकि आत्मा के क्रियारहितपन का निराकरण किया जा चुका है। उस आत्मा में उन मन, वचन, कायों के अवलम्ब से हुई प्रदेश परिस्पन्द स्वरूप क्रिया का सद्भाव है तिस कारण उद्देश्यदल और विधेयदल को धार रहे न्यारे न्यारे दो सूत्रों को बना कर योग विभाग करना ही श्रेष्ठमार्ग है। सभी संदेहों का निकाल देना इस योग विभाग का प्रयोजन है। दूसरी बात यह है। कि दो सूत्र बनाने से इस सिद्धान्त की भी भले प्रकार प्रतिपत्ति हो जाती है कि आत्मा का योग नामक व्यापार केवल, शरीर, वचन मनों, के अवलम्ब से हुई क्रिया ही नहीं है साथ ही उनसे अन्य भी निराले योग का अस्तित्व है जो कि केवलीसमुद्घात काल में प्रसिद्ध है “फलमुख गौरवं न दोषाय" संदेह की निवृत्ति और अन्य योगका सद्भाव इन फलों को धार रहा यह दो सूत्र बनाने का गौरव दोषाधायक नहीं है। कुतः पुनर्यथोक्तलक्षणो योग एवात्रवः सूत्रितो न तु मिथ्यादर्शनादयोऽपोत्याह । यहाँ कोई जिज्ञासु प्रश्न उठाता है कि जैन सिद्धान्त ग्रन्थों की आम्नाय अनुसार सूत्रकार ने जिस योग का लक्षण प्रथम सूत्र में कहा है केवल उस एक योग को ही द्वितीय सूत्र करके श्री उमास्वामी महाराजने क्यों आस्रव कह दिया है ? मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद,आदि को भी आस्रव कहना चाहिये था जब कि मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय, योग इन पाँचोंको बंध का हेतु माना गया है । बंध के सभी हेतुओं को आस्रव कहना चाहिये। किन्तु मिथ्यादर्शन आदि को आस्रव नहीं कह कर केवल योग को ही आस्रव मानना उचित नहीं दीखता है। इस प्रकार प्रश्न प्रवर्तनेपर ग्रन्थकार वार्तिक द्वारा स्पष्ट समाधान कहते हैं उसको सुनिये।। स आस्रव इह प्रोक्तः कर्मागमनकारणम् । पुंसोऽत्रानुप्रवेशेन मिथ्यात्वादेरशेषतः ॥ १॥ आत्मा के निकट कर्मों के आगमन का कारण वह आत्मा प्रदेशपरिस्पन्दस्वरूप योग ही यहाँ प्रकरण में आस्रव अच्छा कहा गया है। मिथ्यात्व, अविरति, आदि बन्धहेतुओं का सम्पूर्ण रूपसे इस योग में अनुप्रवेश हो जाता है इस कारण मिथ्यात्व आदि को कण्ठ से नहीं कहा है। -कर्म नोकर्मों के आगमन का कारण वस्तुतः योग ही है । आत्मा के मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय, ये परिणाम तो उस योग में ही विशिष्टता को उपजा देते हैं, आत्मा के योग को जब मिथ्यादर्शन का प्रसंग मिल जाता है तो यह आत्मा “मिच्छत्त हुण्ड संढाऽसंपत्तेयक्खथावरादावं । सुहमतियं वियलिंदीणिरयदुणिरयाउगं मिच्छे” इन सोलह प्रकृतियों का बंध कर लेता है अन्यथा नहीं। असम्भव पदार्थ की भी कल्पनावश सम्भावना करने वाला कवि कह सकता है कि आत्मा में यदि योग नहीं होता और मिथ्यादर्शन, अविरति, बने भी रहते तो भी आत्मामें अणुमात्र का बंध नहीं हो सकता था अतः प्रधान शक्तिशाली योग को आस्रव कह देने से ही मिथ्यादर्शन आदि उस योग में ही अन्तर्भूत हो रहे समझ लिये जाते हैं। मिथ्यादर्शनं हि ज्ञानावरणादिकर्मणामागमनकारणं मिथ्यादृष्टेरेव न पुनः सासादनसम्यग्दृष्टयादीनां । अविरतिरप्यसंयतस्यैव कात्स्येनैकदेशेन वा । न पुनः संयतस्य, प्रमादोऽपि प्रमत्तपर्यतस्यैव नाप्रमत्तादेः, कषायश्च सकषायस्यैव न शेषस्योपशांतकषायादेः, योगः पुनरशे
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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