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________________ छठा अध्याय ४३३ वह योग काय, वचन, मनों का कर्म है । उस योग करके ही आत्मा में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, आदि कर्मों के साथ बन्ध होना किया जाता है अतः उस योग को बन्ध का हेतुपना युक्तियों से बन जाता है । प्रधानपरिणामो योग इत्ययुक्तं, तस्यात्मबंधहेतुत्वायोगात् । प्रधानस्यैव बंधहेतुरसाविति चायुक्तं, बंधस्योभयस्थत्वसिद्धेः । तर्हि जीवाजीवपरिणामो बंध इति चेत्, सत्यं जीवकर्मणोर्बंधस्य तदुभयपरिणाम हेतुकत्ववचनात् । यहाँ कपिल मत के अनुयायी सांख्य कहते हैं कि उपर्युक्त योग तो प्रधान यानी सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुणों की समता स्वरूप प्रकृति का परिणाम (विवर्त) है आचार्य, कहते हैं कि यों उन सांख्यों का कहना युक्ति रहित है। क्योंकि प्रकृति के विवर्त माने गये उस योग को आत्मा के बद्ध हो जाने की हेतुता घटित नहीं हो पाती है। प्रकृति का परिणाम माना गया योग भला सर्वथा उदासीन पड़े हुये परद्रव्य आत्मा को बंधन में नहीं डाल सकता है। स्वयं अपने परिणाम ही निज को बंध जाने या छूट जाने के तु हो सकते हैं । इस पर सांख्य यदि यों कहें कि आत्मा का बंधन होता ही नहीं है प्रकृति ही बंधती है और प्रकृति ही मुक्त होती है तदनुसार वह प्रकृति का परिणाम हो रहा योग उस प्रकृति के ही बंध जाने का हेतु है । ग्रन्थकार कहते हैं कि कापिलों का यह कहना भी युक्तियों से रीता है कारण कि बंध के दोनों में ठहर जाने की सिद्धि हो रही है। संयोग, पृथक्त्व, बंध, आदि परिणतियां दो आदि पदार्थों में रहती हैं। “द्विष्ठः सम्बन्धः” सम्बन्ध दो में रहता है और "अनेकेषामेकत्वबुद्धिजनकसम्बन्धविशेषो बंधः” अनेक पदार्थों के कथंचित् एक हो जाने की बुद्धि को उपजाने वाला सम्बन्ध विशेष हो रहा बंध तो दो अवयव वाले अवयपदार्थ में ठहरता है, यह बात सिद्ध कर दी गयी है । यहाँ कोई तटस्थ विद्वान् कहता है कि तब तो जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य इन दोनों का परिणाम बंध मान लिया जाय । यों कहने पर तो आचार्य कहते हैं कि यह तुम्हारा कहना ठीक है क्योंकि जीव और कर्म का बंध हो जाने के कारण उन जीव, कर्म दोनों के परिणाम विशेष कहे हैं । अर्थात् आर्षजैनग्रन्थों में कहा है कि "जोगा पयडि पसा ठिदिअणुभागा कसाअदो होंति" जीवकृतं परिणामं निमित्तमात्र प्रपद्य पुनरन्ये स्वयमेव परिणमन्ते ऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन” आत्मा के परिणाम हो रहे योग और कषाय तथा वैभाविक शक्ति को निमित्त पाकर कार्मण वर्गणाओं में उपज गई कर्मत्व शक्ति ये कारण ही जीव, और कर्मों का बंध करा देते हैं । यहाँ प्रकरण में जीव के परिणाम हो रहे योग का लक्षण कर दिया है। कायादिक्रियालक्षणयोगपरिणामो जीवस्यानुपपन्नो निष्क्रियत्वादिति न मंतव्यं । यहाँ किसी नैयायिक या वैशेषिक का पूर्वपक्ष है कि जीव का काय, वचन, आदि की क्रिया स्वरूप योग नामक परिणति होना तो बन नहीं सकता है। क्योंकि जीवद्रव्य तो क्रियाओं से रहित है व्यापक द्रव्यों में क्रिया नहीं हो सकती है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं मानना चाहिये कारण कि - कायादिवर्गण लांबप्रदेशस्पंदनं हि यत् । युक्त कायादिकर्मास्य क्रियत्वप्रसिद्धितः ॥ २ ॥ शरीर, वचन, मन इनके उपयोगी वर्गणाओं का अवलम्ब पाकर जो जीव के प्रदेशों का कम्प होता है वही इस जीव के उक्त सूत्र अनुसार काय आदि का कर्म तो योग कहा गया समुचित है जब कि जीव के क्रिया सहितपन की पूर्वप्रकरणों में प्रमाणों से सिद्धि कर दी गयी है । स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से अपना
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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