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________________ ४३४ श्लोक-वार्तिक जाना, आना, अनेक जीवों को अनुभूत हो रहा है। शरीरधारी दूसरे जीव भी यहाँ वहाँ क्रिया करते हुये प्रतीत हो रहे हैं। श्री उमास्वामी महाराज के सूत्रों से ही जीव और पुद्गल का क्रियासहितपना निर्णीत कर दिया गया है। जीवस्य सक्रियत्वसाधनादुपपन्नमेव हि कायादिकर्मेष्यते । कायवर्गणालंबिप्रदेशपरिस्पन्दनस्यात्मनि कायकर्मत्वाद्वाग्वर्गणालंबिनस्तस्य वाकर्मत्वात् मनोवर्गणापुद्गलालंबिनो मनःकर्मत्वात् । न च तस्यायोगकेवलिनि सिद्धेषु च प्रसक्तिस्तेषां प्रदेश परिस्पन्दनाभावात् । ____ जब कि जीव के क्रियासहितपन की सिद्धि कर देने से जीव के काय आदि द्वारा क्रिया होना युक्तिपूर्ण हो रहा ही अभीष्ट कर लिया जाता है तो भी आत्मा को क्रियारहित माने जाना वैशेषिकों का अनुचित हठ है। देखिये, औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, इन तीन शरीरों के उपयोगी हो रही आहार वर्गणा तथा तैजस, कार्मण, इन दो सूक्ष्म शरीरों के अनुकूल हो रही तैजस वगैणा और कार्मण वर्गणा का आलम्बन कर आत्मा में हुये प्रदेशपरिस्पन्द को कायकर्म कहा गया है । एवं वचनों के उपयोगी भाषावर्गणा का अवलम्ब करने वाले उस आत्मनिष्ठ प्रदेशपरिस्पन्द को वचनकर्म माना गया है। तथा हृदय में बनने योग्य द्रव्य मन को रचने वाले मनोवर्गणा स्वरूप पुद्गलों का आलम्ब कर रहे आत्मप्रदेश परिस्पन्द को मनःकर्म कहा गया है । अतः आत्मा की विशेष क्रियायें ही योग मानी गई हैं। यदि यहाँ कोई यों आक्षेप करे कि उस प्रदेश परिस्पन्दस्वरूप योग का तो चौदहमे गुणस्थान वाले अयोग केवली महाराज में और संसार अवस्था से अतीत हो रहे सिद्ध परमेष्ठियों में प्रसंग प्राप्त हो जायेगा, आचार्य कहते हैं कि उक्त प्रसंग ठीक नहीं है। क्योंकि उन अयोगकेवलियों और सिद्धों में आत्मा के प्रदेशों में परिस्पन्द नहीं पाया जाता है । चौदहवें गुणस्थानमें आत्मा अकम्प रहता है और चौदहवें गुणस्थान के पश्चात् स्वभावसे ही ऊर्ध्वगतिवाला शुद्ध आत्मा अकम्प होकर सात राजू ऊंचा गमन करता हुआ उसी समय सिद्धालय में विराजमान हो जाता है। तथाहि-अयोगकेवलिनो न प्रदेशस्पंदः समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपातिध्यानाश्रयत्वात् । यस्य तु प्रदेशस्पंदः स्यात् स तथा प्रसिद्धो यथा सयोग इति युक्तिः । सिद्धनामत एव प्रदेशस्पंदाभावस्तेषामयोगव्यपदेशः समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपातिध्यानाश्रयत्वासिद्धेरव्यपदेश्यचारित्रमयत्वात् कायादिवर्गणाभावाच्च सिद्धानां न योगो युज्यते । ततो वीर्यांतरायस्य क्षयोपशमे क्षये वा सति कायादिवर्गणालब्धितो जीवप्रदेशपरिस्पन्दो योगस्त्रिविधः प्रत्येतव्यः । इसी सिद्धान्त को अनुमान द्वारा विशाल रूप से ग्रन्थकार यों दिखलाते हैं कि अयोग केवली के (पक्ष) प्रदेशों का परिस्पन्द नहीं है ( साध्य ) समुच्छिन्नक्रियाऽप्रतिपाति नाम के चौथे शुक्ल ध्यान का आश्रय होने से ( हेतु ) जिस जीव के प्रदेश का कम्प होगा वह जीव तो तिस प्रकार समुच्छिन्नक्रियानिवर्तिध्यान का आधार नहीं हो सकता है जिस प्रकार कि अन्य तेरह गुणस्थानों वाले जीव हैं। यों तेरहवें गुणस्थान वाले सयोगकेवली हैं ( व्यतिरेकदृष्टान्त ) यह युक्ति अयोगकेवली के प्रदेश परिस्पन्द का निवारण कर देती है । अर्थात्-तेरहमें गुणस्थान के अन्त में अन्तर्मुहूर्त पहिले बादर योगों का उपसंहार कर सूक्ष्म काययोग का अवलम्ब करता हुआ सयोगी परमेष्ठी सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाती नामक तीसरे शुक्ल
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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