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श्लोक - वार्तिक
तो
यहाँ किसी का प्रश्न है कि अजीव पदार्थ का व्याख्यान हो चुकने के अव्यवहित उत्तर काल सूत्रकार को आस्रव तत्त्व का निरूपण करना चाहिये था किन्तु अब क्या करने की अभिलाषा रखते हुये सूत्रकार श्री उमास्वामी महाराज पहिले ही से एकदम न जाने यहांपर योग का कथन कर रहे हैं ? समझ में नहीं आता। इस प्रकार आशंका प्रवर्तने पर ग्रन्थकार श्री विद्यानन्द स्वामी करके अग्रिम वार्तिक द्वारा समाधान कारक यह उपदेश किया जाता है ।
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अथास्रवं विनिर्देष्टुकामः प्रागात्मनोंऽजसा । कायवाङ्मनसां कर्म योगोऽस्तीत्याह कर्मणाम् ॥ १ ॥
अब छठे अध्याय के आदि में आस्रव तत्त्व का ही विशेषतया निर्देश करने के लिये अभिलाषा रखते हुये सूत्रकार महाराज सब से प्रथम " कायवाङ्मनसां कर्म योगोऽस्ति” काय, वचन, मनों, का अवलम्ब लेकर परिस्पन्द होना योग है यों इस योग को कह रहे हैं जो कि आत्मा के निकट ज्ञानावरणादि कर्मों के आस्रव करने का हेतु है अतः झटिति आस्रव को नहीं कह कर उसके प्राणभूत योग को कह दिया गया है। पूर्व आचार्यों की सम्प्रदाय अनुसार योग को आस्रव कहा गया है । अतः योग का लक्षण कर ही द्वितीय सूत्र द्वारा झट उसी को आस्रव कह देंगे ।
आत्मनः कर्मणां ज्ञानावरणादीनामास्रवं विनिर्देष्टुकामोऽजसा प्रागेव कायवाङ्मनसां कर्म योगोऽस्तीत्याहेदं सूत्रं । तत्र योज्यते अनेनात्मा कर्मभिरिति योगो बंधहेतुर्न पुनः समाधिः युजेर्योगार्थस्य ण्यंतस्य प्रयोगात् । पुंखौ घः प्रायेणेति घस्य विधानात् । स च कायवाङ्मनः कर्म, तेनैवात्मनि ज्ञानावरणादिकर्मभिर्बंधस्य करणात् तस्य बंधहेतुत्वोपपत्तेः ।
संसारी आत्मा के ज्ञानावरणादि कर्मों के आस्रव का विशेषतया निर्देश करने के लिये अभिलाषुक हो रहा मेरा परम गुरु सूत्रकार झट पहिले ही से शरीर, वचन, और मन का कर्म योग होता है, इस पदानुपूर्वी अनुसार यों यहाँ इस उक्त सूत्र को कह बैठा है । यहाँ एक ग्रन्थकार आचार्य दूसरे पूर्ववर्त्ती पूज्य आचार्य को स्थान-स्थान पर एकवचन से प्रयुक्त करते हैं तद्नुसार ही मुझ देशभाषा अनुवादकार ने भी वैसा ही अर्थ लिख दिया है। हाँ, अन्य स्थलों पर एकवचन पद का अर्थ देश काल पद्धति अनुसार विनय की रक्षा करते हुये बहुवचन के अनुकूल किया गया है। काव्य का प्राण मानी गयी व से आस्रव का विशेष निर्देश करने के लिये उपात्त किये गये उस सूत्र में कहे गये योग शब्द का निरुक्तिपूर्वक अर्थ यह है कि इस योग करके आत्मा कर्मों के साथ जोड़ दिया जाता है। इस कारण योग कर्म, नोकर्म, के बन्ध का हेतु है । युजिर् योगे धातु के ण्यन्त पद अनुसार कर्म में प्रत्यय कर विग्रह करते हुये पुनः घ प्रत्यय लाकर योग शब्द को बना लिया जाय । अर्थात्-योग ही जीवों का कर्म से बंध हो जाने का प्रधान कारण है । योग नहीं होता तो सभी जीव शुद्ध सिद्ध परमेष्ठी भगवान् हो जाते । यहाँ प्रकरण अनुसार फिर “युज समाधौ ” इस दिवादि गण की युजधातु से योग शब्द को नहीं बनाया जाय। क्योंकि चित्तवृत्ति निरोध स्वरूप समाधि तो बन्ध का कारण नहीं है प्रत्युत समाधि तो संवर का कारण है । अतः योग यानी सम्बन्ध कराना अर्थ को कह रही ण्यन्त युज धातु का प्रयोग किया गया है “पुं खौ घः प्रायेण” इस सूत्र करके यहाँ घ प्रत्यय का विधान किया गया है और यों योग शब्द की सिद्धि हो जाने से
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