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________________ योऽविभागप्रतिच्छेदानन्तानन्त्यं परं दधत् । कर्महा केवलज्ञानं प्रापद्वीरोऽवतात्स नः ।। अथ षष्ठोऽध्यायः ॥ इसके अनन्तर अब छठे अध्याय का प्रारम्भ किया जाता है । पाचमे अध्याय तक जीव तत्त्व और अजीव तत्त्व का व्याख्यान हो चुका है, अब तत्वों के प्रतिपादक "जीवाजीवा" आदि सूत्र में उनके अध्यवहित उत्तर कथन किये गये आस्रव तत्त्व के व्याख्यान का अवसर प्राप्त है उस आस्रव तत्व की प्रसिद्धि करने के लिये सूत्रकार महाराज छ अध्याय का प्रारम्भ करते हुये इस आदिसूत्र का प्रारम्भ करते हैं । कायवाङ्मनःकर्म योगः ॥१॥ काय, वचन, और मन का अवलम्ब लेकर जो आत्मा के प्रदेशों का परिस्पन्द ( चलन ) होना है वह योग कहा जाता है । , अर्थात् — संसारी आत्माओं में एक योग नाम की पर्यायशक्ति है गोम्मटसार में “ पुग्गल विवाइ देहोदयेण मणवयणकायजुत्तस्स । जीवस्स जाउ सत्ती कम्मागमकारणं जोगो” पुद्गल में विपाक करने वाले शरीर और अंगोपांग नाम कर्म की प्रकृति का उदय होने पर मन, वचन, और काय से युक्त हो रहे जीव को जो कर्म और नोकर्मों के आगमन की कारण, हो रही शक्ति है वह योग है, यह भाव योग कहा जा सकता है । इस भाव योगरूप पुरुषार्थ से आत्मा के प्रदेशों का परिस्पन्द हो जाना स्वरूप द्रव्ययोग उपजता है । ग्रहण की जा चुकीं या ग्रहण करने योग्य हो रहीं मन, वचन, कायों, की वर्गणाओं का अवलम्ब पाकर आत्मा के वह कम्पस्वरूप योग उत्पन्न हुआ अनादि काल से तेरहवें गुणस्थानतक सदा कर्मनोकर्मों का आकर्षण करता रहता है । भाव योग अपरिस्पन्द आत्मक है और द्रव्ययोग परिस्पन्द आत्मक है । अवलम्ब के भेद से १ सत्यमनोयोग २ असत्यमनोयोग ३ उभयमनोयोग, ४ अनुभय मनोयोग ५ सत्यवचन योग ६ असत्यवचन- योग ७ उभयवचन योग ८ अनुभयवचन योग ९ औदारिककाययोग १० औदारिक मिश्रकाययोग १९ वैक्रियिक काययोग १२ वैक्रियिक मिश्रकाय योग १३ आहारक काय योग १४ आहारकमिश्रकाययोग, १५ कार्मणकाययोग, ये योग के पन्द्रह भेद हो जाते हैं । अतः शरीर, वचन और मन का अवलम्ब ले रहे संसारी आत्मा का प्रदेश परिस्पन्द योग कह दिया जाता है । नन्वजीवपदार्थव्याख्यानानंतरमास्रवे वक्तव्ये किं चिकीर्षुः सूत्रकारः प्रागेव योगं ब्रवीतीत्यारेकायामिदमुपदिश्यते ।
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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