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________________ ४२४ श्लोक - वार्तिक सन्मुख श्रणुश्नों की उत्पत्ति को साधते हुये ग्रन्थकार ने स्थूल स्कन्ध के भेद से सूक्ष्मों की उत्पति होजाना साध दिया है, आवश्यक आन पड़े द्रव्य के लक्षण को वड़ी विद्धता पूर्वक प्रसिद्ध किया है उत्पाद प्रादि के सद्भाव में आपादन की गयी अनवस्था को चुटकियों में उड़ा दिया है। नित्यपन की परिभाषा निर वद्य की गयी है अर्पणा और अर्पणा अनुसार नित्यत्व अनित्यत्व आदि का अनेकान्त सम्पूर्ण वस्तुनों प्रत पोत भरा कहा गया है संशय, विरोध, श्रादि का ईषत् भी अवतार नही है । परमाणुत्रों के वंधने का कारण समझा कर दो अपवाद सूत्र और एक विधायक सूत्र का बहुत अच्छा विवरण कर दिया गया है यहां युक्ति और दृष्टान्तों से बंध व्यवस्था का समर्थन किया गया है परिणामवाद की प्रधानता से द्रव्य का लक्षण किया जा चुका होने पर भी वस्तु स्थिति अनुसार शिष्यबुद्धिवैशद्यार्थ पुनः सूत्र द्वारा किये गये दूसरे द्रव्य लछण का मुख्य प्रयोजन सह अनेकान्त और क्रम अनेकान्त की सम्बित्ति होना दर्शाया है निश्चयकाल का मुख्य द्रव्यपना साधते हुये अनन्त शक्तियों की अपेक्षा कालाणु का अनन्त समय सहितपना भूषित किया गया है वस्तुत कालात्रों की अनन्त शक्तियों अनुसार होरहे जगत् के चित्र, विचित्र, कार्य प्रसिद्ध ही हैं कारणों में वास्तविक भिन्ना भिन्न शक्तियोंके माने विना अनेक कार्योंकी उत्पत्ति होना असम्भव हो है । द्रव्यों में जड़रहे गुरण और पर्यायों का विवरण कर अध्याय के प्रान्त में संक्षेप से नयों का प्ररूपण कर दिया गया है । यों पाचमे अध्याय में कहे गये सूत्रकार के अजीव तत्वका वाघानाको प्रमाण नयों द्वारा हटाये हुये ग्रन्थकार द्वारा प्रतीति कर लेने योग्यपना उपदिष्ट किया गया है । "शुद्ध द्रव्यों का आकृतियां " प्रकरण वश ग्रन्थकार के अभिप्राय अनुसार शुद्ध द्रव्यों की आकृतियों का समझ लेना भी आवश्यक है । शुद्ध प्रात्मा का ध्यान करने वाले जैन बंधुत्रों को विदित होना चाहिये कि अचेतन शुद्धद्रव्यों का ध्यान करना श्री शुद्धात्मा को निर्विकल्पक समाधिरूप ध्यान के अभ्यास का कारण है । अतः जव तक हमें शुद्ध द्रव्यों के आकार याना ( लम्बाई चौड़ाई और मोटाई) का परिज्ञान नहीं होगा, तब तक हम उन शुद्ध द्रव्यों में अन्तस्तल स्पर्शा ध्यान नहीं जमा सकते हैं । इस छोटे से लोकाकाशमें अनंतात मृत्त और अमूत्त द्रव्य निरावाध भरे हुये हैं । संसारी जीव और स्कन्ध पुद्गला को छोड़कर शेष जाव पुद्गल, धम, अधम, आकाश और काल ये सब शुद्ध द्रव्य हैं । प्रत्येक द्रव्य में अनुजोवो होकर पाये जा रहे प्रदेशवत्व गुण को परगति याना द्रव्य की व्यंजन पर्याय कुछ न कुछ अवश्य हानो चाहिये । छः द्रव्यों में से शुद्ध जोवद्वव्यों का आकार चरम शरीर किंचित् न्यून हो रहा प्रसिद्ध ही है । उपस्मि तनुवात वलय के ठोक मध्यवर्ती ऊपसले ४५ लाख योजन लम्बे, चौड़े, गोल भाग में
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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