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पंचम-अध्याय
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अभीष्ट किया गया है अन्यथा असंख्यात प्रदेशी लोकाकाश में अनन्तानन्त परमाणुषों का ठहरना झूठा पड़ेगा।
विभु होने के कारण आकाश का स्व में ही ठहरना स्वभाव मानते हुये अन्यद्रव्यों का लोकाकाश में अवगाह होना समझा कर जीवों सम्बन्धी प्रदेशों के संहार और विसर्प को युक्तियों से साधा है, आत्मा का व्यापकपना माने जाना अनुचित है। इसमें प्रत्यक्ष से ही विरोध प्राता है यहाँ प्रकरण अनुसार व्यवहर नय से आधार प्राधेय भाव को मानते हुये भी निश्चय नय करके एक को आधे दूसरे को आधेय माने रहने का निराकरण कर दिया है निश्चयनय तो कार्य कारणभाव को एक झगड़ा ही समझती है यों द्रव्यों का लोकाकाश में अवगाह होना. या स्व स्वरूप में ही अवगाह होना, अथवा कहीं भी अवगाह नहीं होना, नयविशारद पण्डितों करके विचार लिया जाय । उदासीन कारणों की प्रवल शक्ति का निरूपण करते हुये विवरण में जीव, पुद्गलों की गति और सम्पूर्ण द्रव्यों की स्थिति, अवगाहन, इन क्रियाओं में धर्म, अधर्म, आकाश, द्रव्यों का उपकारकत्व समझा कर तथा पुद्गल, जीव और काल के उपकारों को भी गिनाकर उन उन छह द्रव्यों की अनुमान प्रमाण से सिद्धि कर लेने का संकेत किया है यहाँ वर्तनाका अच्छा विचार चलाया है साथ ही व्यवहार कालके कर्तव्यों का निरूपण भी हो सका है। परिणाम की अच्छी व्याख्या की गयो है। जब अकेले परिणाम वाद स्वरूप सैनिक करके ही जैन सिद्धान्त अखिल दर्शनों पर विजय पा सकता है तो अन्य अनेक सूक्ष्म जैनसिद्धान्त महाराजों को तो स्वकीय राज्यासन पर ही विराजमान वने रहने देना चाहिये । उत्पाद व्यय, ध्रौव्य, को लिये हुये सदृश, विसदृश परिणाम ही जगद विजय करने के लिये पर्याप्त हैं । क्रिया और पनत्वापरत्व का विचार करते हुये व्यवहार काल को साध दिया है। यों धर्म आदि द्रव्यों की अनमान से प्रतिपत्ति कराते हुये ग्रन्थकार ने सूत्रकार महाराज को जयघोषणा कर पंचम अध्याय के पहिले आन्हिक को समाप्त कर दिया है।
इसके आगे सूत्रों अनुसार स्पर्श, रस, गध, वर्णों की यथाक्रमता का निरूपण करते हुये सभी पौदगलिक द्रव्यों में रूप आदि चारों गुणों का अविनाभाव रूप से ठहरना समझाया है शब्द का बहुत लम्बा, चौड़ा, व्याख्यान किया गया है। वैशेषिकों के यहाँ माने गये शब्द को प्राकाश के गुणपन की बड़ी छीछा लेदर उड़ायी गयी है शब्दों की उत्पत्ति और गमन पद्धति का विचार किया गया है शब्द का प्रकरण बड़ा रोचक और विज्ञान सम्मत है छाया, पातप, घट, आदि के समान शब्द भी पदगल की पर्याय है प्रतः पर शब्दस्फोट का विचार कर वंयाकरणों के दर्शन की अवहेलना की गयी है वाक्य के लक्षणों पर भी गम्भीर विवेचन कर अभिहितान्वय वादो प्रार अन्विताभिधान वादो मोमांसकों का निराकरण किया गया है शब्द को आकाशगुणपन या अमूर्तद्रव्यपन अथवा स्फोट प्रात्मकत्व, का प्रति विधान कर स्कन्ध स्वरूप पुद्गलपर्याय होना साध दिया हैं बंध, सूक्ष्मपन, आदि की युक्तियों से सिद्धि की है पुद्गलों का अणु और स्कन्ध रूप से भेद संघातों द्वारा प्रात्मलाभ होना बताकर नैयायिकोंके