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पंचम - अध्याय
अनंतानंत सिद्ध परमेष्ठी विराज रहे हैं। उन सबका ऊर्ध्व शिरोभाग- अलोकाकाश से चिपट रहा है । सबसे बड़ी अवगाहना के सिद्ध भगवान् ५२५ धनुष ऊंचे हैं । और सबसे छोटी श्रवगाहना वाले ३|| साढ़े तीन हाथ के हैं । तथा मध्यम कोटि के शुद्ध परमात्मानों की लम्बाई, चौड़ाई, मोटाई के प्रसंख्याते प्रकार हैं ।
सिद्ध क्षेत्र में सिद्ध महाराज खड्गासन और पदमासन इन दो ग्रासनों से अवस्थित हैं । भले ही कोई अन्तकृत केवली होकर सिद्ध हुये हों, वे बारहवें गुणस्थात के अन्त में संपूर्ण उपसर्गों को टाल तेरहवें, चौदहवें, गुणस्थानों में उनकी व्यंजन पर्याय खड्गामन या पर्यङ्कासन होजाती है। बड़े धनुषों से पौने सोलह सौ १५७५ धनुष या छोटे धनुषों से ७८७५०० सात लाख सत्तासी हजार पांचसौ मोटे तनु वातवलय के १५०० पन्द्रह सौवें भाग में बड़ी अवगाहना वाले सिद्ध परमेष्ठी ठहर रहे हैं और उसी १५७५ धनुष ऊंचे यानी ३१५००० इकतीस लाख पचास हजार छोटे हाथ ऊचे तनुवात वलय के नौ लाखवें भाग में जघन्य प्रवगाहना वाले सिद्ध सुशोभित हैं । साढ़े तीन हाथ की प्रवगाहना से लेकर साढ़े छह हाथ तक की अवगाहना वाले जीव चौदहवें गुरणस्थान में खड्गासन रहते हैं ।
"वस्तुस्वभावोऽतर्क गोचरः " वस्तु की स्वभाविक परिणतियों पर कुचोद्यों की गुंजाइश नहीं नहीं है । यदि ठिगने आदमी को लम्वा कोट या ऊंची बाड़ की टोपी पसंद आये तो उसमें कुतर्क चलाना व्यर्थ है । यों वाहूवली आदीश्वर महाराज आदि से प्रारम्भ कर श्री महावीर जम्वू स्वामी पर्यन्त अथवा भूत भविष्य काल के अनेक प्रकार व्यंजन पर्यायों वाले सिद्ध परमेष्ठियोंका ध्यान करना चाहिये ।
अब जानागम में शुद्ध द्रव्य मानेगये आकाश, पुद्गलपरमाणु, धर्म, अधर्म द्रव्यों और कालात्रों के आकार का विचार करना है ।
प्रथम उपात्त सबसे बड़े अलोकाकाश की व्यंजन पर्याय समघन चतुरस्र है । यानी एक इंच लम्बी चौड़ी और एक इंच मोटी वरफी जैसे पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिरण, ऊर्ध्व, अधः यों छैऊ मोर समान पैल वाली होकर घनाकार नियत चौकोर है । उसी के समान जिनदृष्ट नियत मध्यम अनंतानंत राजू लम्बा और इतना ही चौड़ा तथा ठीक इतना ही ऊंचा समघन चतुरस्र प्रलोकाकाश है । श्री नेमीचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती महोदय ने द्विरूपवर्गवारा में "जीवा पोग्गल काला सेढी श्रायास तप्पदरं" और द्विरूप घनधारा में "तत्तो पढमं मूलं सव्वागासं च जागेज्जो" इन गाथोत्तरार्धो के अनुसार श्रलोकाकाश की व्यंजन पर्याय समघन चतुरस्र मानी है । प्राचार सार में लिखा है कि
व्योमा मूर्त स्थितं नित्यं चतुरस्र समंधनं । भावावगाह हेतुश्चानन्तानन्त प्रदेशकम् ।
इसी प्रकार सबसे छोटे अवयव माने गये परमाणुकी प्राकृति भी वरफी के समान ठीक समघन चतुरस्र है । भले ही "प्रत्तादि प्रत्तमभं प्रत्ततं णेव इ दिये गेज्झम्" यों परमाणु को निरंश माना
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