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पंचम-अध्याय
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क्योंकि उनका परस्पर में संकर होजाने की व्यवस्था नहीं हैं। एक बात यह भी है कि सूत्रकार ने जब छह ही द्रव्यों का निरूपण किया है तो सदा कालत्रय में सातवे द्रव्य का अभाव होजाने से ये द्रव्य अवस्थित रहते हैं । हां पर्यायाथिकनय से कथन करने के अनुसार वे धर्म आदिक अनित्य हैं और अनवस्थित हैं, यह सिद्धान्त कण्ठोक्त विना यों ही शब्द--सामर्थ्य से जान लिया जाता है। ..
भावार्थ-द्रव्य और पर्यायोंका समुदाय वस्तु है जो कि प्रमाणका विषय है। वस्तु के अंशों को जानने वाले नय ज्ञान हैं। द्रव्याथिक नय वस्तु के नित्य, अवस्थित, अशों को और पर्यायार्थिक अनित्य, अनवस्थित अशों को जानता रहता है । द्रव्ये नित्य हैं, उनकी पर्यायें अनित्य हैं, इसी प्रकार द्रव्ये अवस्थित हैं, हां उनकी पर्याय अनवस्थित हैं । ब्रह्मचर्य नामक पर्याय में जैसे सत्यव्रत, अहिंसाब्रत, कृत कारित प्रादि नौ भंग, क्षमा आदि परिस्थितियों के अनुसार जैसे अनेक उत्तम अंश बढ़ जाते हैं, उसी प्रकार प्रत्येक पर्याय में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, आदि की अनेक परवशताओं से न्यून, अधिक, अविभाग-प्रतिच्छेदों को लिये अश अन वस्थित रहते हैं । अत्यन्त छोटे निमित्तसे भी पर्याय अवस्था से अवस्थान्तर को प्राप्त होरहीं अवस्थित नहीं रह पाती हैं। परिशुद्ध प्रतिभा वाले विचारकोंकी समझ में यह सिद्धान्त सुलभतया आजाता है। न्यायकर्ता ( हाकिम ) ने अपराधी को एक घण्टा, एक दिन, महीना, छह महीना, तीन वर्ष, सात वर्ष, आदि के लिये जो कारावास का दण्ड दिया है वह तादृश अपराध की अपेक्षा अपराधी के भिन्न भिन्न भावों का उत्पादक है, इसी प्रकार एक रुपया, दस, वीस, पांचसौ, हजार, दस हजार आदि का दण्ड विधान भी अपराधी की न्यारी न्यारी परिणतियों का उत्पादक है, एक एक पैसे की न्यूनता या अधिकता उसी समय तादृश भावों की उत्पादक होजाती है। दीपक के प्रकाशमें मन्द कान्ति वाले कपड़े या भाण्डकी स्वल्प कान्तिका परिणमन एक गज, दसगज, वीसगज की दूरी पर न्यारा न्यारा है- यहां तक कि एक प्रदेश आगे पीछे होने पर मन्द चमक के अविभाग प्रतिच्छेदों की संख्या में अन्तर पड़ता रहता है । शिखा, मूछे भौयें, आदि के वाल यद्यपि निर्जीव हैं फिर भी उनको कैंची या छुरा से काट देने पर मर्यादा तक फिर बढ़ जातें हैं यदि नहीं काटे जाय तो विलक्षण परिणति के अनुसार भीतर से नहीं निकल कर उतने ही मर्यादित बने रहते हैं ।
___ कहां तक कहा जाय परिणामों का विचित्र नृत्य जितना अन्त:--प्रविष्ट होकर देखा जाता है उतना ही चमत्कार प्रतीत होता है, धन्य हैं वे सर्वज्ञदेव जिन्होंने सूक्ष्मातिसूक्ष्म परिणतियों का प्रत्यक्ष कर अनेक परिणामों का हमें दिग्दर्शन करा दिया है कि अमुक वस्तु का क्या भाव है ? इसका तात्पर्य यही है । कि बाजार में प्रत्येक वस्तु का मूल्य दिन रात न्यून अधिक होता रहता है इसमें भी बेचने और खरीदने--योग्य वस्तुत्रों के परिणमन तथा क्रेता, विक्रेताओं की आवश्यकता, अनावश्यकता अथवा सुलभता, दुर्लभता, उपयोगिता, अनुपयोगिता के अनुसार हुये परिणाम ही भाव माने गये हैं । मोक्षमार्ग में भी शुभ भावों की अतीव आवश्यकता है, भावोंको भी चीन्हने वाले व्यापारी के समान मुमुक्षु जीव भी झटिति आत्म--लाभ कर लेता है। कहां तक स्पष्ट किया जाय पदार्थों के भावों से ही सिद्ध अवस्था